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कसाय पाहुड सुत्त
[ ६ वेदक- अर्थाधिकार
११. तत्थ द्वाणसमुक्कित्तणा । १२. अस्थि एकिस्से पयडीए पवेसगो । १३. दोन्हं पयडीणं पवेसगो । १४. तिन्हं पयडीणं पवेसगो णत्थि । १५. चउण्हं पडीणं पवेसगो । १६. एत्तो पाए निरंतरमत्थि जाव दसहं पयडीणं पवेसगो । चूर्णिसू० - उसमे यह स्थानसमुत्कीर्तना है ॥ ११ ॥
विशेषार्थ - प्रकृतिस्थान - उदीरणाका वर्णन चूर्णिसूत्रकार समुत्कीर्तना आदि सत्तरह अनुयोगद्वारोसे करते हुए पहले समुत्कीर्तनासे वर्णन करते है । समुत्कीर्तना दो प्रकारकी है - स्थानसमुत्कीर्तना और प्रकृतिसमुत्कीर्तना । इन दोनोंमेंसे पहले स्थानसमुत्कीर्तनाके द्वारा प्रकृति - उदीरणा कही जाती है, ऐसा अभिप्राय जानना चाहिए ।
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० - एक प्रकृतिका प्रवेश करनेवाला होता है ॥१२॥
चूर्णिस्
विशेपार्थ - तीनो वेदो में से किसी एक वेद और चारो संज्वलन कपायोमे से किसी एक कपायके उदयसे क्षपकश्रेणी या उपशमश्रेणीपर आरूढ़ हुए जीवके वेदकी प्रथम स्थिति के आवलिमात्र शेप रह जानेपर वेदकी उदीरणा होना वन्द हो जाती है, तब वह उपशामक या क्षपक जीव एक संव्वलनप्रकृति की उदीरणा करनेवाला होता है ।
चूर्णिसू० - दो प्रकृतियोका प्रवेश करनेवाला होता है ॥ १३॥
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विशेषार्थ - 3 - उपशम और क्षपकश्रेणीमे अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके प्रथम समयसे लगाकर समयाधिक आवलीमात्र वेदकी प्रथमस्थिति रहनेतक तीनों वेदोमे किसी एक वेद और चारों संज्वलनकषायोमेंसे किसी एक कपायकी उदीरणा करनेवाला होता है ।
चूर्णिसू० - तीन प्रकृतियो का प्रवेश करनेवाला नहीं होता || १४ ||
विशेषार्थं - क्योंकि, पूर्वोक्त दो प्रकृतियोकी उदीरणा होनेके पूर्व अपूर्वकरणगुणस्थानमें हास्य-रति और अरति शोक इन दो युगलो में से किसी एक युगल के युगपत प्रवेश होनेसे तीन प्रकृतियो की उदीरणारूप स्थान नही पाया जाता । [० - चार प्रकृतियोका प्रवेश करनेवाला होता है ॥ १५॥
चूर्णिसू०
विशेषार्थ - औपशमिक या क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थानमे हास्य - रति और अरति-शोक युगलमेसे किसी एक युगलके साथ किसी एक वेद और किसी एक संज्वलनकपाय इन चार प्रकृतियोकी एक साथ उदीरणा करता है । चूर्णि सू० - यहाँसे लेकर निरन्तर दश प्रकृतियोंतकका प्रवेश करनेवाला होता है ॥ १६॥
विशेषार्थ - उपर्युक्त चार प्रकृतियोकी उदीरणाके स्थानसे लगाकर निरन्तर अर्थात लगातार दश प्रकृतिरूप स्थान तक मोहप्रकृतियोंकी उदीरणा करता है । अर्थात् उक्त चार प्रकृतिरूप उदीरणास्थानमे भय, जुगुप्सा, किसी एक प्रत्याख्यानावरण कपाय अथवा सम्यक्त्वप्रकृति, इन चारोमें से किसी एकके प्रवेश करनेपर पॉच प्रकृतिरूप उदीरणास्थान होता है । उक्त स्थान में किसी एक अप्रत्याख्यानावरण कपायके प्रवेश करनेपर छह प्रकृतिरूप