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गा० ६२]
वेदक-स्वामित्व-निरूपण "एक्कग छक्के कारस दस सत्त चउक्क एकगं चेव । दोसु च बारस भंगा एक्कम्हि य होति चत्तारि" ॥१॥
३०. *सामित्तं । ३१. सामित्तस्स साहणट्ठमिमाओ दो सुत्तगाहाओ । ३२. तं जहा।
"सत्तादि दसुक्कस्सा मिच्छत्ते मिस्सए णवुक्कस्सा । छादी णव उक्कस्सा अविरदसम्मे दु आदिस्से ॥२॥ पंचादि-अहणिहणा विरदाविरदे उदीरणहाणा ।
एगादी तिगरहिदा सत्तुक्कस्सा च विरदेसु" ॥३॥ ३३. एदासु दोसु गाहासु विहासिदासु सामित्तं समत्तं भवदि ।
"दशप्रकृतिरूप स्थानके भंग एक, नौप्रकृतिरूप स्थानके छह, आठप्रकृतिरूप स्थानके ग्यारह, सातप्रकृतिरूप स्थानके दश, छहप्रकृतिरूप स्थानके सात, पॉचप्रकृतिरूप स्थानके चार, चारप्रकृतिरूप स्थानके एक, दोप्रकृतिरूप स्थानके बारह और एकप्रकृतिरूप स्थानके चार भंग होते है" ॥१॥
विशेषार्थ-उक्त स्थानोके भंगोकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है
१ ६ ११ १० ७ ४ १ १२ ४
इन सब भंगोका योग (२४+१४४+२६४+२४०+१६८+९६+२४+१२+ ४=९७६) नौ सौ छिहत्तर होता है ।
चूर्णिसू०-अब उपयुक्त उदीरणास्थानोके स्वामित्वका वर्णन करते है। स्वामित्वके साधन करनेके लिए ये दो सूत्रगाथाएँ है । वे इस प्रकार है ॥३०-३२॥
“सातसे आदि लेकर दश तकके चार उदीरणास्थान मिथ्यादृष्टिके होते है । सातसे आदि लेकर नौ तकके तीन उदीरणास्थान सम्यग्मिथ्यादृष्टिके होते है। (ये ही तीन स्थान सासादनसम्यग्दृष्टिके भी होते हैं, किन्तु उसके सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिके स्थानपर किसी एक अनन्तानुबन्धी कषायकी उदीरणा होती है।) छहसे आदि लेकर नौ तकके चार उदीरणास्थान अविरतसम्यग्दृष्टिके होते हैं। पॉचसे आदि लेकर आठ तकके चार उदीरणास्थान विरताविरत श्रावकके होते हैं। एकसे आदि लेकर मध्यमे तीन रहित सात तकके छह स्थान संयतोमें होते है" ॥२-३॥
चूर्णिसू०-इन दोनो गाथाओकी व्याख्या करनेपर स्वामित्व समाप्त होता है ॥३३॥
*ताम्रपत्रवाली प्रतिमें इस सूत्रके पूर्व पत्थ सादि-अणादि-धुव-अर्धवाणुगमो ताव कायव्यो' यह एक और सूत्र मुद्रित है ( देखो पृ० १३६३ )। पर प्रकरणको देखते हुए वह सूत्र नही, अपि तु टीकाका ही अंग प्रतीत होता है, क्योंकि चूर्णिकारने कहीं भी सादि आदि अनुयोगद्वारोंको नहीं कहा है।