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फसाय पाहुड सुत्त [६वेदक अर्थाधिकार ३९१. सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स ? ३९२. सम्मत्ताहिमुह-चरिमसमयसम्मामिच्छाइडिस्स सव्वविसुद्धस्स' । ३९३. अणंताणुबंधीणं उक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स ? ३९४, संजमाहिमुह-चरिमसमयमिच्छाइट्ठिस्स सव्वविसुद्धस्स । ३९५. अपञ्चक्खाणकसायाणमुकस्सिया पदेस-उदीरणा कस्स १३९६. संजमा. विशेषार्थ-जो दर्शनमोहनीयका क्षपण करनेवाला जीव अनिवृत्तिकरणकालके संख्यात भागोके व्यतीत होनेपर असंख्यात समयप्रबद्धोकी उदीरणा प्रारम्भ करके मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका यथाक्रमसे क्षयकर तदनन्तर सम्यक्त्वप्रकृतिका क्षपण करता हुआ अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वप्रकृतिकी चरम फालिको दूरकर और कृतकृत्यवेदक होकर अन्तर्मुहूर्त तक समयाधिक आवलीसे युक्त अक्षीण-दर्शनमोहनीयरूपसे अवस्थित है, उसके ही सम्यक्त्वप्रकृतिकी सर्वोत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा होती है। क्योकि, इसके ही अधस्तनकालवर्ती समस्त प्रदेश-उदीरणाओसे असंख्यातगुणी प्रदेश-उदीरणा पाई जाती है। यहाँ यह आशंका नहीं करना चाहिए कि यदि आगे जाकर कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि संक्लेशको प्राप्त हो गया, तो उसके उक्त समयपर सम्यक्त्वप्रकृतिकी सर्वोत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा कैसे सम्भव है ? इसका समाधान यह है कि आगे जाकर भले ही कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि संक्लेशको प्राप्त हो जाय, परन्तु कृतकृत्यवेदक होने के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त तक तो अपने कालके भीतर प्रतिसमय असंख्यातगुणित द्रव्यकी उदीरणा करता ही है, इसलिए इसके अतिरिक्त अन्यत्र सम्यक्त्वप्रकृतिकी प्रदेश-उदीरणाका उत्कृष्ट स्वामित्व सम्भव नहीं है।
शंका-सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा किसके होती है ? ॥३९१॥
समाधान- सर्व-विशुद्ध और सम्यक्त्वके अभिमुख चरमसमयवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवके होती है ।। ३९२॥
शंका-अनन्तानुबन्धी चारो कषायोकी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा किसके होती है ? ॥३९३॥
समाधान-सर्व-विशुद्ध और संयमके अभिमुख चरमसमयवर्ती मिथ्यादृष्टिक होती है॥३९४॥
शंका-अप्रत्याख्यानावरणकपायोकी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा किसके होती है ॥३९५॥
समयपबद्धाणमुदीरणमाढविय मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्ताणि जहाकम खविय तदो सम्मत्त खवेमाणो अणियहिः करणचरिमसमए सम्मत्तचरिमफालिं णिवादिय कदकरणिजो होदणतोमुहत्तं समयावलियअक्खीणदसणमोहणीयभावेणावठ्ठिदो, तस्स पयदुक्कस्ससामित्त होइ । कुदो; तस्स समयाहियावलियमेत्तगुणसेढिगोवुच्छाण चरिमठ्ठिदीदो उदीरिजमाणमसखेवाणं समयपवद्धाण हेट्टिमासेसपदेसुदीरणाहिंतो असंखेनगुणत्तटमणादो ।
जयघ० - १ किं कारणं; उकस्सविसोहिपरिणामेण विणा पदेसुदीरणाए उक्फस्सभावाणुववत्तीदो । जयध०