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कषायोपयोगकाल- अल्पबहुत्व-निरूपण
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गा० ६९ ]
८. गदीसु क्खिमाण- पवेसणेण एगसमयो होज ।
९. 'को व केणहिओ' त्ति एदस्य पदस्स अत्थो अद्धाणमप्पाचहुअं । १०. तं जहा । ११. ओघेण माणद्धा जहण्णिया थोवा' । १२. कोधद्धा जहणिया विसे
चूर्णिम् ० – गतियो में निष्क्रमण और प्रवेशकी अपेक्षा चारो कषायोका जघन्यकाल एक समय भी होता है ॥ ८॥
विशेषार्थ - निष्क्रमणकी अपेक्षा एक समयकी प्ररूपणा इस प्रकार जानना चाहिएकोई एक नारकी मानादि किसी एक कषायसे उपयुक्त होकर स्थित था, जब आयुका एक समय-मात्र शेष रहा, तब क्रोधोपयोगसे परिणत होकर एक समय नरकमे रहकर निकला और तिर्यंच या मनुष्य हो गया । इस प्रकार निष्क्रमणकी अपेक्षा क्रोधोपयोगका एक समय मात्र जघन्यकाल प्राप्त हुआ । अब प्रवेशकी अपेक्षा एक समयकी प्ररूपणा करते हैं— कोई एक तिर्यंच अथवा मनुष्य जीव क्रोधकपायसे उपयुक्त होकर स्थित था, जब क्रोधकषायके कालमे एक समय अवशिष्ट रहा, तब मरकर नारकियोमें उत्पन्न हो प्रथम समयमे क्रोधोपयोगके साथ दिखाई दिया और दूसरे ही समयमे अन्य कषायसे उपयुक्त हो गया । इस प्रकार यह प्रवेशकी अपेक्षा एक समय-प्रमाण क्रोधकषायका जघन्य - काल प्राप्त हुआ । इसी प्रकार से शेष कषायो तथा शेष गतियोमे भी निष्क्रमण और प्रवेशकी अपेक्षा एक समयकी प्ररूपणा करना चाहिए ।
चूर्णिसू० - ' किस कषायका उपयोगकाल किस कपायके उपयोगकालसे अधिक है' गाथाके इस द्वितीय पदका अर्थ कपायोके उपयोगकाल सम्बन्धी अल्पबहुत्व है । वह कपायोके उपयोगकाल-सम्बन्धी अल्पबहुत्वका क्रम इस प्रकार है— ओधकी अपेक्षा मानकपायका जघन्यकाल सबसे कम है ॥ ९-११॥
विशेषार्थ - यद्यपि तिर्यंच और मनुष्यों के निर्व्याघातकी अपेक्षा मानकषायके उपयोगका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त-प्रमाण ही है तथापि आगे बताए जानेवाले कपायोके उपयोगकालसे यह मानकषायका उपयोग- काल सबसे अल्प है, क्योकि वह संख्यात आवलीप्रमाण ही होता है ।
चूर्णिम् ० - क्रोधकषायका जघन्यकाल, मानकषायके जघन्यकाल से विशेष अधिक
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ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'को व केणहिओ त्ति' इतना ही सूत्र मुद्रित है और आगे के अशको टीकामें सम्मिलित कर दिया है (देखो पृ० १६१६ ) | परन्तु टीकासे ही शेष इस अशके सूत्रता सिद्ध है. तथा सूत्र नं० ५ से भी ।
१ एत्थ 'माणद्धा जहणिया' त्ति वृत्त े तिरिक्ख मणुमाण णिव्वाघादेण माणोवजोगजहण्णकालो अतोमुहुत्तपमाणो घेत्तन्वो, अण्णत्थ घेपमाणे माणजहण्णद्वार सव्वत्थोवत्ताणुत्रवत्ती दो । तदो जहणिया माणद्वा सखेनावलियमेत्ता होदूण सव्वत्थोवा त्ति सिद्ध । जयघ०
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