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प्रदेश- उदीरणा - स्वामित्व-निरूपण
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गा० ६२ ] - हिमुहचरिमसमय- असं जदसम्माइट्ठिस्स सम्बविसुद्धस्स ईसिमज्झिमपरिणामस्स वा' |
३९७. पच्चक्खाणकसायाणमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स १३९८. संजमाहिमुहचरिमसमय संजदासंजदस्स सव्ववियुद्धस्स ईसिमज्झिमपरिणामस्स वा । ३९९. कोहसंजलणस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स १४०० खवगस्स चरिमसमयकोधवेदगस्स । ४०१. एवं माण-माया संजलणाणं ।
४०२. लोहसंजलणस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स १ ४०३. खवगस्स समया
समाधान - सर्वविशुद्ध या ईषन्मध्यम परिणामवाले और संयम के अभिमुख चरम - समयवर्ती असंयतसम्यग्दृष्टिके होती है ।। ३९६ ॥
विशेषार्थ - ईषन्सध्यमपरिणाम किसका नाम है ? इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है - संयम ग्रहण करनेके सम्मुख चरमसमयवर्ती असंयतसम्यग्दृष्टिके जघन्य स्थान से लेकर षड्वृद्धिरूपसे अवस्थित विशुद्ध परिणाम असंख्यात लोकप्रमाण होते है । उनके इस आयामको आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण भागहारसे खंडित करनेपर उनमेका जो अन्तिम खंडरूप उत्कृष्ट परिणाम है, वह तो सर्वविशुद्ध परिणाम कहलाता है और उसी खंडका जो जघन्य परिणाम है, वह ईषन्मध्यम परिणाम कहलाता है । शेष समस्त परिणामोको मध्यम परिणाम कहते है |
शंका-प्रत्याख्यानावरणकपायोकी उत्कृष्ट प्रदेश- उदीरणा किसके होती है ? ॥ ३९७ ॥ समाधान-सर्वविशुद्ध या ईषन्मध्यम परिणामवाले संयमाभिमुख चरमसमयवर्ती संयतासंयतके होती है ॥ ३९८ ॥
शंका-संज्वलनकोधकी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा किसके होती है ? ॥ ३९९॥ समाधान- चरमसमयवर्ती क्रोधका वेदन करनेवाले क्षपकके होती है ॥ ४००॥ चूर्णिसू० – इसीप्रकार संज्वलन मान और मायाकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणाका स्वामित्व जानना चाहिए ||४०१ ॥
विशेषार्थ - यहाँ केवल इतना विशेप जानना चाहिए कि मानकी उत्कृष्ट प्रदेशउदीरणा मानका वेदन करनेवाले चरमसमयवर्ती क्षपकके और मायाकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा मायाका वेदन करनेवाले चरमसमयवर्ती क्षपकके होती है ।
शंका- संन्वलन लोभकी उत्कृष्ट प्रदेश- उदीरणा किसके होती है ? ॥ ४०२ ॥
१ एतदुक्त भवति - संजमा हिमुहचरिमसमयअसं जदसम्माइट्रिट्ठस्स असखेनलोगमेत्ताणि विसोहिट्टाणाणि जहण्णठाणप्पहुडि छवढिसरूवेणावट्ठिदाणि अत्थि, तेसिमायामे आवलियाए असखेजभागमेत्तभागहारेण खडिदे तत्थ चरिमखडयसन्वपरिणामेहि असंखेज लोग भेयभिण्णेहिं उक्कस्सिया पदेसुदीरणा पण विरुज्झदि त्ति । तक्खडचरिमपरिणामो सव्वविसुद्ध परिणामो णाम । तत्थेव जहण्णपरिणामो ईसिपरिणामो णाम । सेस परिणामा मज्झिमपरिणामा त्ति भण्णते । जयध०
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