________________
५३४
. कसाय पाहुड सुत्त [६ वेदक-अर्थाधिकार ताओ विसेसाहियाओ' | ५१०. संतकम्मं विसेसाहियं ।
५११. जहण्णाओ । ५१२. जाओ पयडीओ बझंति संकामिज्जति उदीरिज्जति उदिण्णाओ संतकम्मं च एका पयडी ।
५१३ द्विदीहिं उक्कस्सेण जाओ द्विदीओ मिच्छत्तस्स बझंति ताओ थोवाओं। नहीं होता है । जितनी प्रकृतियाँ संक्रमणको प्राप्त होती है, वे बंध-योग्य प्रकृतियोसे विशेप अधिक हैं । क्योकि उनकी संख्या सत्ताईस वतलाई गई है । संक्रमण-योग्य प्रकृतियोसे सत्कर्म योग्य प्रकृतियाँ विशेष अधिक है, क्योकि मोहकी सत्ता-योग्य प्रकृतियाँ अट्ठाईस वतलाई गई हैं ॥५०७-५१०॥
अब प्रकृतियोकी अपेक्षा जघन्य अल्पवहुत्व कहते है
चूर्णिसू०-जितनी प्रकृतियाँ बंधती है, संक्रमण करती हैं, उदय और उदीरणाको प्राप्त होती हैं, तथा सत्त्वमें रहती हैं, उन प्रकृतियोकी संख्या एक है ॥५११-५१२॥
विशेषार्थ-नवम गुणस्थानमे मोहकी एक संज्वलन लोभप्रकृति ही बंधती है । संक्रमण भी एक मायासंज्वलनका नवे गुणस्थानमे होता है। उदय, उदीरणा और सत्त्व भी दशमे गुणस्थानमें एक सूक्ष्म लोभसंज्वलनकपायका पाया जाता है। इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि वन्ध, उदय, उदीरणा, संक्रम और सत्कर्म जघन्यतः मोहकी एक प्रकृतिका ही होता है।
इस प्रकार प्रकृति-विषयक अल्पवहुत्व समाप्त हुआ। अव स्थिति-विपयक-अल्पवहुत्व कहनेके लिए चूर्णिकार उत्तर सूत्र कहते हैं
चूर्णिम् ०-स्थितिकी अपेक्षा उत्कर्षसे मिथ्यात्वकी जितनी स्थितियाँ वंधती हैं, वे सबसे कम हैं ।।५१३॥
विशेपार्थ-इसका कारण यह है कि यहॉपर आवाधाकालसे न्यून सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण निपेकस्थितिकी विवक्षा की गई है। मिथ्यात्वका उत्कृष्ट आवाधाकाल सात हजार वर्ष है।
१ कुदो; सत्तावीसपयडिपमाणत्तादो | जयध० २ कुदो; अट्ठावीसपयडीणमुक्कस्ससतकम्मभावेण समुवलभादो ।
३ तं जहा-पंधेण ताव जहण्णेण लोहसंजलणसण्णिदा एक्का चेव पयडी होदि, अणियट्टिम्मि माया संजलणवधवोच्छेदे तदुवलभादो । सकमो वि मायासजलणसण्णिदाए एक्किस्से चेव पयटीए होइ; माणसज• लणसंकमवोच्छेदे तदुबलभादो । उदयोदीरणसतकम्माण पि जपणभावो अणियट्टि सुहुमसापराइएउ घेत्तव्यो । एवमेदासिं जहण्णवध-सकम मतकम्मोदयोदोरणाणमेयपगडिपमाणत्ताटो णत्थि अप्पाबहुअमिदि जाणाविदमैदेण सुत्तण | जयध
४ किंपमाणाओ मिच्छत्तत्स उक्कत्सेण वज्झमाणद्विदीओ ! आवाहणसत्तरिसागरोवरकोडाकोटिमेत्ताओ । कुदो, णिसेवटिटदीणं चेव विवक्खियत्ताटो। जयध०