________________
गा० ६२ ]
प्रकृतिस्थान- उदीरणा - निरूपण
४६७
४. तत्थ पढमिल्लगाहा पयडि- उदीरणाए पयडि - उदय च वद्धा । ५. कदि आवलियं पवेसेदित्ति एस गाहाए पढमपादो पयडिउदीरणाए । ६. एदं पुण सुतं पयडिट्ठाण - उदीरणाए बद्ध । ७ एदं ताव ठवणीयं । ८. एगेगपयडिउदीरणा दुविहा- एगे मूलपडिउदीरणा च एगेगुत्तरपयडिउदीरणा च । ९. एदाणि वेवि पत्तेगं चउवीस मणियोगद्दारेहिं मग्गिऊण । १०. तदो पयडिडाणउदीरणा कायव्वा ।
विशेषार्थ - यह गाथा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश -विषयक बंध, संक्रमण, उदय, उदीरणा तथा सत्तासम्बन्धी जघन्य उत्कृष्ट पदविशिष्ट अल्पबहुत्वका निरूपण करती है । प्रकृति के विना स्थिति, अनुभाग और प्रदेशवंधादिका होना असंभव है, अतः यहॉपर 'प्रकृति' पद अनुक्त सिद्ध है | गाथा - पठित 'जो जं संकामेदि' पदसे 'संक्रमण', 'जं बंधदि' पदसे बंध और सत्त्व तथा 'जं च जो उदीरेदि' पदसे उदय और उदीरणाकी सूचना की गई है।
अब यतिवृषभाचार्य उक्त चारो सूत्र - गाथाओका क्रमशः व्याख्यान करते हुए पहले प्रथम गाथाका व्याख्यान करते है
चूर्णि सू० ० - उक्त चारो सूत्र - गाथाओमे से पहली गाथा प्रकृति- उदीरणा और प्रकृतिउदयमे निबद्ध है, अर्थात् इन दोनोका निरूपण करती है । 'कदि आवलियं पवेसेदि' गाथा - का यह प्रथम पाद प्रकृति - उदीरणासे प्रतिबद्ध है । किन्तु यह सूत्र प्रकृतिस्थान - उदीरणासे सम्बद्ध है और इसे स्थगित करना चाहिए ॥४-७॥
विशेषार्थ - प्रकृति- उदीरणा दो प्रकारकी है - मूलप्रकृति - उदीरणा और उत्तरप्रकृतिउदीरणा । इनमे उत्तरप्रकृति - उदीरणा भी दो प्रकार की है- एकैकोत्तर प्रकृति - उदीरणा और प्रकृतिस्थान-उदीरणा । उक्त सूत्र इसी प्रकृतिस्थान - उदीरणासे सम्बद्ध है, अन्यसे नही, यह अभिप्राय जानना चाहिए । यहॉ चूर्णिकार इस प्रकृतिस्थान - उदीरणाका वर्णन स्थगित करते हैं, क्योंकि एकैकप्रकृति-उदीरणाकी प्ररूपणा के विना उसका निरूपण करना असम्भव है ।
चूर्णिसू० - एकैकप्रकृति- उदीरणा दो प्रकारकी है - एकैकमूलप्रकृति- उदीरणा और एकैकोत्तरप्रकृति- उदीरणा । इन दोनो ही प्रकारकी उदीरणाओको पृथक्-पृथक् चौवीस अनुयोगद्वारोसे अनुमार्गण करके तत्पश्चात् प्रकृतिस्थान- उदीरणाका वर्णन करना चाहिए ॥ ८-१० ॥
विशेषार्थ - गणधर प्रथित पेज्जदोसपाहुडमे एकैकप्रकृति - उदीरणा के दोनो भेदोका समुत्कीर्तनासे आदि लेकर अल्पबहुत्व - पर्यन्त चौबीस अनुयोगद्वारोसे विस्तृत वर्णन किया गया है । चूर्णिकार कसायपाहुडकी रचना संक्षिप्त होने के कारण अपनी चूर्णिने भी वैसा विस्तृत वर्णन न करके व्याख्यानाचार्योंके लिए उसे वर्णन करनेका संकेत करके तत्पश्चात् प्रकृतिस्थान - उदीरणाके व्याख्यान करनेके लिए कह रहे हैं । एक समयमे जितनी प्रकृतियोकी उदीरणा करना सम्भव है, उतनी प्रकृतियोंके समुदायको प्रकृतिस्थान- उदीरणा कहते है I