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वेदग-अस्थाहियारो १. वेदगे त्ति अणियोगद्दारे दोण्णि अणियोगद्दाराणि । तं जहा-उदयो च उदीरणा च । २. तत्थ चत्तारि सुत्तगाहाओ । ३. तं जहा । कदि आवलियं पवेसेइ कदि च पविस्संति कस्स आवलियं । खेत्त-भव-काल-पोग्गल-ट्ठिदिविवागोदयखयो दु ॥५९॥
वेदक अर्थाधिकार कर्मनिके वेदन-रहित सिद्धनिका जयकार ।
करिके भाषू अति गहन यह वेदक अधिकार ॥
अब कषायप्राभृतके पन्द्रह अधिकारोमेंसे छठे वेदक नामके अनुयोगद्वारको कहनेके लिए यतिवृषभाचार्य चूर्णिसूत्र कहते है
चूर्णिसू०-वेदक नामके अनुयोगद्वारमें उदय और उदीरणा नामक दो अनुयोगद्वार है ॥१॥
विशेषार्थ-कर्मोंके यथाकाल-जनित फल या विपाकको उदय कहते है और उदयकाल आनेके पूर्व ही तपश्चरणादि उपाय-विशेषसे कर्मों के परिपाचनको उदीरणा कहते हैं । उदय और उदीरणाको कर्म-फलानुभवरूप वेदनकी अपेक्षा 'वेदक' यह संज्ञा दी गई है ।
चूर्णिसू०-इस वेदक नामके अनुयोगद्वारमे चार सूत्र-गाथाए हैं। वे इस प्रकार है ॥२-३॥
__प्रयोग-विशेषके द्वारा कितनी कर्म-प्रकृतियोंको उदयावलीके भीतर प्रवेश करता है ? तथा किस जीवके कितनी कर्म-प्रकृतियोंको उदीरणाके बिना ही स्थितिक्षयसे उदयावलीके भीतर प्रवेश करता है ? क्षेत्र, भव, काल और पुगलद्रव्यका आश्रय लेकर जो स्थिति-विपाक होता है, उसे उदीरणा कहते हैं और उदय-क्षयको उदय कहते हैं ॥५९॥
विशेषार्थ-यहाँ 'क्षेत्र' पदसे नरकादि क्षेत्रका, 'भव' पदसे जीवोके एकेन्द्रियादि भवोका, 'काल' पदसे शिशिर, वसन्त आदि कालका, अथवा वाल, यौवन, वार्धक्य आदि काल-जनित पर्यायोका और 'पुद्गल' पदसे गंध, ताम्बूल वस्त्र-आभरण आदि इष्ट-अनिष्ट पदार्थोंका ग्रहण करना चाहिए। कहनेका सारांश यह है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव आदिका आश्रय लेकर कर्मोंका उदय और उदीरणारूप फल-विपाक होता है।