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कसाय पाहुड सुत्त [६ वेदक-अर्थाधिकार को कदमाए द्विदीए पवेसगो को व के य अणुभागे । सांतर णिरंतरं वा कदि वा समया दु बोद्धव्वा ॥६०॥ बहुगदरं बहुगदरं से काले को णु थोवदग्गं वा । अणुसमयमुदीरेंतो कदि वा समयं (ये) उदीरेदि ॥६१॥ जो जं संकामेदि य जंबंधदि जंच जो उदीरेदि । तं केण होइ अहियं द्विदि-अणुभागे पदेसग्गे ॥६२॥
कौन जीव किस स्थितिमें प्रवेश करानेवाला है और कौन जीव किस अनुभाग में प्रवेश कराता है। तथा इनका सान्तर और निरन्तर काल कितने समयप्रमाण जानना चाहिए ॥६॥
विशेषार्थ-यद्यपि गाथाके प्रथम चरणसे स्थिति-उदीरणाका और द्वितीय चरणसे अनुभाग-उदीरणाका उल्लेख किया गया है, तथापि स्थिति-उदीरणा प्रकृति-उदीरणाकी और अनुभाग-उदीरणा प्रदेश-उदीरणाकी अविनाभाविनी है, अतः गाथाके पूर्वार्धसे चारो उदीरणाओका कथन किया गया समझना चाहिए । गाथाके उत्तरार्ध-द्वारा उक्त चारो उदीरणाओकी कालप्ररूपणा और अन्तरप्ररूपणा सूचित की गई है। तथा गाथाके उत्तरार्धमे पठित द्वितीय 'वा' शब्द अनुक्तका समुच्चय करनेवाला है अतः उससे गाथासूत्रकारके द्वारा नहीं कहे गये समुत्कीर्तना आदि शेष अनुयोगद्वारोका ग्रहण करना चाहिए ।
विवक्षित समयसे तदनन्तरवर्ती समयमें कौन जीव बहुतकी अर्थात् अधिकसे अधिकतर कर्माकी उदीरणा करता है और कौन जीव स्तोकसे स्तोकतर अथोत् अल्प कर्मोंकी उदीरणा करता है ? तथा प्रतिसमय उदीरणा करता हुआ यह जीव कितने समय तक निरन्तर उदीरणा करता रहता है ॥६१॥
विशेपार्थ-गाथाके प्रथम चरणसे प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश उदीरणासम्बन्धी भुजाकार पदका निर्देश किया गया है और द्वितीय चरणसे उन्हीके अल्पतर पदकी सूचना की गई है । गाथाके पूर्वार्धमे पठित 'वा' शब्दले अवस्थित और अवक्तव्य पदोका ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार गाथाके पूर्वार्ध-द्वारा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश-उदीरणा-विषयक भुजाकार अनुयोगद्वारकी प्ररूपणा की गई है । गाथाके उत्तरार्ध-द्वारा भुजाकार-विपयक कालानुयोगद्वारकी सूचना की गई है। और इसी देशामर्शक वचनसे शेप समस्त अनुयोगद्वारोका भी संग्रह करना चाहिए। तथा इसीके द्वारा ही पदनिक्षेप और वृद्धि भी कही गई समझना चाहिए , क्योकि भुजाकारके विशेपको पदनिक्षेप और पदनिक्षेपके विशेपको वृद्धि कहते है।
जो जीव स्थिति, अनुभाग और प्रदेशाग्र में जिसे संक्रमण करता है, जिसे चाँधता है और जिसकी उदीरणा करता है, वह द्रव्य किससे अधिक होता है (ओर किससे कम होता है )? ॥६२॥