________________
२५८
कसाय- पाहुड सुन्त
[ ५ संक्रम-अर्थाधिकार
८०. सम्मामिच्छत्त- सोलसकसाय - णवणोकसायाणं च तिणि भंगा कायव्वा । ८१. णाणाजीवेहि कालो । ८२. सव्वकम्माणं संकामया केवचिरं कालादो होंति ? ८३. सव्वदा ।
८४. णाणाजीवेहि अंतरं । ८५. सव्त्रकम्मसंकामयाणं णत्थि अंतरं । ८६. सणियासी । ८७ मिच्छत्तस्स संक्रामओ सम्मामिच्छत्तस्स सिया संकामओ, सिया असंकामओ । ८८. सम्मत्तस्स असंकामओ । ८९. अनंताणुवंधीणं सिया कम्मंसिओ, सिया अकम्मंसिओ । जदि कम्मंसिओ, सिया संकामओ, सिया असंकामओ । ९०. सेसाणमेकवीसाए कम्माणं सिया संकामओ सिया असं कामओ । ९१. एवं सण्णियासो कायव्वो
।
मिथ्यात्व, सोलह कपाय और नव नोकपायोके तीन भंग करना चाहिए । अर्थात् कदाचित् सर्व जीव संक्रामक होते है ( १ ) । कदाचित् अनेक जीव असंक्रामक होते है, और कोई एक जी संक्रामक होता है ( २ ) । कदाचित् अनेक जीव संक्रामक और अनेक जीव असंक्रामक होते है ( ३ ) ||७७-८०॥
चूर्णिसू० 10- अब नाना जीवोकी अपेक्षा प्रकृतिसंक्रमणका काल कहते है ॥ ८१ ॥ शंका- मोहनीयकी सर्व कर्मप्रकृतियो के संक्रमणका कितना गल है ? ॥८२॥ समाधान - सर्वकाल है, अर्थात् मोहनीयकर्मकी सभी प्रकृतियो के संक्रमण करनेवाले जीव सर्वदा पाये जाते हैं ॥ ८३ ॥
चूर्णिसू ० - अब नाना जीवोकी अपेक्षा प्रकृतिसंक्रमणका अन्तर कहते है - मोहनीयकर्मकी सर्व प्रकृतियो से किसी भी प्रकृतिका नाना जीवोकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, अर्थात् मोहकर्मकी सभी प्रकृतियोके संक्रामक जीव सर्वं काल पाये जाते है ।।८४-८५ ।।
चूर्णिसू० ० - अब प्रकृति - संक्रामकका सन्निकर्म कहते है - मिथ्यात्वका संक्रमण करने - वाला जीव सम्यग्ध्यिात्वका कदाचित् संक्रामक होता है और कदाचित असंक्रामक होता है । सम्यक्त्वप्रकृतिका असंक्रामक होता है । अनन्तानुवन्धी कपायोका कदाचित् कर्माशिक (सत्ता युक्त) होता है और कदाचित् अकर्माशिक ( सत्ता-रहित ) होता है । यदि कर्माशिक है, तो कदाचित् संक्रामक होता है और कदाचित् असंक्रामक होता है। शेप इक्कीस कर्मप्रकृतियों - का कदाचित् संक्रामक होता है और कदाचित् असंक्रामक होता है । जिस प्रकार मिथ्यात्वको निरुद्ध करके शेप प्रकृतियोका सन्निकर्ष किया, इसी प्रकारसे शेप कर्मप्रकृतियोका भी सन्नि - कर्प करना चाहिए ||८६-९१।।
ताम्रपत्रवाली प्रतिमं इस सूत्र की टीका के पञ्चात् 'भावो सव्वत्थ ओदइओ भावो' यह सूत्र भी मुद्रित है (देखो पृष्ठ ९८० ) । पर यह वस्तुतः सूत्र नहीं, किन्तु उच्चारणावृत्तिका ही अग है, क्योंकि, उसपर जयधवलाकारने टीका रूपसे 'सुगम' आदि कुछ भी नहीं लिखा है ।