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कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार णिक्खेवट्ठाणाणि । २६. उक्कस्सओ पुण णिक्खेवो केत्तिओ ? २७ जत्तिया उक्कस्सिया कम्मद्विदी उक्कस्सियाए आवाहाए समयुत्तरावलियाए च ऊणा तत्तिओ उक्कस्सओ णिक्खेवो।
२८. वाघादेण कधं ? २९. जइ संतकम्मादो बंधो समयुत्तरो तिस्से हिदीए णत्थि उक्कड्डणा' । ३०. जइ संतकम्मादो बंधो दुसमयुत्तरो तिस्से वि संतकम्मअग्गद्विदीए णत्थि उक्कड्डणा । ३१. एत्थ आवलियाए असंखेजदिभागो जहणिया अइच्छावणा ।
शंका-उत्कृष्ट निक्षेपका प्रमाण कितना है ? ॥२६॥
समाधान-उत्कृष्ट आवाधा और एक समय अधिक आवलीसे हीन उत्कृष्ट कर्मस्थितिका जितना प्रमाण होता है, उतना उत्कृष्ट निक्षेपका प्रमाण है ॥२७॥
विशेषार्थ-पूर्वमे बंधे हुए कर्मप्रदेशोकी नवीन बन्धके सम्बन्धसे स्थितिके बढ़ानेको उद्वर्तना या उत्कर्पणा कहते है। यह उद्वर्तना भी निर्व्याघात और व्याघातकी अपेक्षा दो प्रकारकी होती है । व्याघातसे होनेवाली उद्वर्तना आगे कही जायगी । यहॉपर निर्व्याघातकी अपेक्षा उद्वर्तनाका वर्णन किया जा रहा है, उसका स्पष्टीकरण यह है कि विवक्षित जिस किसी जीवके जिस समय जो स्थितियाँ बंध रही हैं, उनके ऊपर पूर्वमे बंधी हुई स्थितियोकी उद्वर्तना होती है । उस उद्वर्त्यमान स्थितिकी आवली-प्रमाण जघन्य अतिस्थापना होती है
और आवलीके असंख्यातवे भागप्रमाण जघन्य निक्षेप होता है । उत्कृष्ट अतिस्थापनाका प्रमाण उत्कृष्ट आवाधाकाल है। उत्कृष्ट निक्षेपका प्रमाण उत्कृष्ट आवाधा और एक समय अधिक आवलीसे कम उत्कृष्ट कर्मस्थिति है, उस आवाधाकालके अन्तर्गत जितनी स्थितियाँ हैं, उनके कर्मप्रदेशोकी उद्वर्तना नहीं की जा सकती, अतएव वे उद्वर्तनाके अयोग्य है । आवाधाकालसे परे जो स्थितियाँ है, वे उद्वर्तनाके योग्य होती है । आबाधाकालके वीतनेपर जब घे स्थितियां उदयको प्राप्त होती हैं, तो एक आवली तककी स्थितियोकी जिसे कि उदयावली कहते हैं, उद्वर्तना नही की जा सकती। जघन्य निक्षेपसे लेकर उत्कृष्ट निक्षेप तकके जितने मध्यवर्ती भेद होते है, तत्प्रमाण ही निक्षेपस्थान होते हैं ।
शंका-व्याघातकी अपेक्षा उद्वर्तना कैसे होती है ? ॥२८॥
समाधान-यदि पूर्व-बद्ध सत्कर्मसे नवीन वन्ध एक समय अधिक है, तो उस स्थितिके ऊपर सत्कर्मकी अग्रस्थितिकी उद्वर्तना नहीं होगी। यदि पूर्वबद्ध सत्कर्मसे नवीन वन्ध दो समय अधिक है, तो उसके ऊपर भी सत्कर्मकी अग्रस्थितिकी उद्वर्तना नहीं होगी । जितनी
१ समयाहियवधावलिय गालिय उदयावलियबाहिरदिठ्दिीए उक्कड्डिज्जमाणाए एसो उक्कस्सणिक्खेयो परूविदो, परिघडमेव तिस्से समयाहियावलियाए उक्करसाबाहाए च परिहीणुकस्सकम्मट्ठिदिमेत्तुकस्सणिक्खेवदसणादो | जयध०
२ कुदो, जपणाहच्छावणाणिक्खेवाण तत्थासभवादो । जयव०
३ कुदो एव, एत्थ जहण्णा इच्छावणाए आवलियाए असखेज्जदिभागमेत्तीए तासिं ट्ठिीणमंतभा. वदंसणादो | जयध