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गा०५८]
स्थितिसंक्रम-पदनिक्षेप-स्वामित्व-निरूपण __२३८. पदणिक्खेवे तत्थ इमाणि तिणि अणियोगद्दाराणि समुक्तित्तणा सामित्तमप्पाबहुरं च । २३९. तत्थ समुक्कित्तणा-सव्वासि पयडीणमुक्कस्सिया वड्डी हाणी अवट्ठाणं च अस्थि । २४०. एवं जहण्णयस्स वि णेदव्यं ।
२४१. सामित्तं । २४२. मिच्छत्त सोलसकसायाणमुक्कस्सिया वड्डी कस्स ? २४३. जो चउहाणियजवमज्झस्स उवरि अंतोकोडाकोडिट्ठिदि अंतोमुहुत्तं संकामेमाणो सो सव्वमहतं दाहं गदो उकस्सहिदि पबद्धो तस्सावलियादीदस्स तस्स उक्कस्सिया वड्डी । २४४. तस्सेव से काले उकस्सयमवट्ठाणं'। २४५. उक्कस्सिया हाणी कस्स ? २४६.जेण उक्कस्सटिदिखंडयं धादिदं तस्स उक्कस्सिया हाणी । २४७. जमुक्कस्पद्विदिखंडयं तं थोवं । जं सव्वमहंत दाहं गदो ति भणिदं, तं विसेसाहियं । २४८.
चूर्णिसू०-पदनिक्षेपमे ये तीन अनुयोगद्वार होते हैं-समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । उनमें समुत्कीर्तना इस प्रकार है-सभी प्रकृतियोकी उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थान होते है। इसी प्रकार जघन्यका भी वर्णन करना चाहिए । अर्थात् सभी प्रकृतियोके जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान होते है ।।२३८-२४०॥
चूर्णिसू०-अब स्वामित्वको कहते है ॥२४१॥
शंका-मिथ्यात्व और सोलह कपायोकी स्थितिसंक्रमण-विषयक उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? ॥२४२॥
समाधान-जो जीव चतुःस्थानिक यवमध्यके ऊपर अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण स्थितिको संक्रमण करता हुआ अन्तर्मुहुर्त तक स्थित था, वह उत्कृष्ट संक्लेशके वशसे सर्व महान् दाहको प्राप्त हुआ और उसने उक्त कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया, उसके एक आवलीकाल व्यतीत होनेपर प्रकृत कर्मोंकी स्थितिसंक्रमण-विषयक उत्कृष्ट वृद्धि होती है ।।२४३॥
___ चूर्णिसू०-उस ही जीवके अनन्तरकालमें अर्थात् उत्कृष्ट वृद्धि होनेके दूसरे समयमें उक्त कर्मोंका स्थितिसंक्रमण-सम्बन्धी उत्कृष्ट अवस्थान होता हैं ॥२४४॥
शंका-मिथ्यात्व और सोलह कषायोकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? ॥२४५।।
समाधान-जिसने उत्कृष्ट स्थितिकांडकका घात किया है, उसके प्रकृत कर्मोंकी स्थितिसंक्रमण-विषयक उत्कृष्ट हानि होती है ॥२४६॥
चूर्णिसू०-जो उत्कृष्ट स्थितिकांडक है, वह अल्प है और जो सर्व महान दाह-गत
* ताम्रपत्रवाली प्रतिमे 'अतोमुहुत्तं पाठ नहीं है । (देखो पृ० १०९५ ) पर टीकाके अनुसार सूत्र में यह पाठ होना चाहिए ।
१ कुदो उक्कस्सवुडीए अविणट्टसरूवेण तत्थावट्ठाणदसणादो । जयध°
२ तत्थुक्कस्सद्विदिखडयमेत्तस्स ट्ठिदिसकमस्स एक्सराहेण परिहाणिदसणादो। केत्तियमेत्ते च तमुक्कस्सछिदिखडय ? अतोकोडाकोडिपरिहीणकम्मठिदिमेत्तक्कस्सवुड्ढीदो किंचूणपमाणत्तादो । जयध०
३ जमुक्कस्सछिदिकंडयमुक्कस्सहाणीए विसईकयं तं थोवं। जं पुण उकस्सवदिपरूवणाए सव्वमहंत दाहं गदो त्ति भणिद त विसेसाहियं ति वुत्त होइ । केत्तियमेत्तो विसेसो १ अतोकोडाकोडिमेत्तो । जयध०