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कसाय पाहुड सुत्त
[ ५ संक्रम-अर्थाधिकार
मया । ३७१. सिया एदे च अवत्तव्य संकामओ च, सिया एदे च अवत्तव्यसंकामया च । ३७२. णाणाजीवेहि कालो । ३७३. मिच्छत्तस्स सव्वे संकामया सव्वद्धा । ३७४, सम्मत्त- सम्मामिच्छत्ताणमप्पयरसंकामया केवचिरं कालादो होति ? ३७५. नहणेण एयसमओं । ३७६. उकस्सेण संखेज्जा समया । ३७७ णवरि सम्मत्तस्स उकस्सेण अंतोमुत्तं । ३७८. अवद्विदसंकामया सव्वद्धा । ३७९ अवत्तव्य कामया केवचिरं कालादो होंति ? ३८०. जहण्णेण एयसमओ । ३८१. उकस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो । ३८२. अनंताणुबंधीणं भुजगार अप्पयर अवट्ठिदसं कामया सव्वद्धा । ३८३. अवत्तन्यसंकामया केवचिरं कालादो होंति ? ३८४. जहण्णेण एयसमओ' । और कोई एक जीव अवक्तव्य संक्रामक भी होता है । कदाचित् अनेक जीव भुजाकारादिसंक्रामक भी होते हैं और अनेक जीव अवक्तव्य- संक्रामक भी होते हैं || ३६७-३७१।। चूर्णि सू० ० अब नाना जीवोंकी अपेक्षा भुजाकारादि - संक्रामकोका काल कहते हैं— मिथ्यात्वके भुजाकारादि सर्वपदों के संक्रामक जीव सर्वकाल होते हैं ॥ ३७२-३७३॥ शंका-सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व के अल्पतर-संक्रामकोका कितना काल है ? ||३७४॥
समाधान-जयन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल संख्यात समय है । केवल सम्यक्त्यप्रकृतिके अल्पतर-संक्रामकोका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । उक्त दोनो कर्मोंके अवस्थित संक्रामक सर्वकाल होते है || ३७५-३७८॥
शंका- इन्ही दोनो कर्मोंके अवक्तव्य-संक्रामकोका कितना काल है ? || ३७९॥ समाधान-जयन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल आवलीके असंख्यातत्रे भाग
है ॥३८०-३८१॥
चूर्णिसू० - अनन्तानुवन्धी कपायोंके भुजाकार- संक्रामक, अल्पतर- संक्रामक और अवस्थित-संक्रामक जीव सर्वकाल होते हैं || ३८२॥
शंका- अनन्तानुबन्धी कपायोके अवक्तव्य-संक्रामकोका कितना काल है ? || ३८३ ||
१ कुदो, तिहमेदेसिं पदाण धुवभावित्त सणादो | जयव०
२ कुदो; दंसणमोहक्खवयणाणा जीवाणमेय समयमणुभागलं डयघादणवणप्यवरभावेण परिणदाण पवदजहण्णकालोवलभादो । जयध०
३ तॆसिं चेत्र सखेजवार मणुसंधिदपवाहाणमप्पयरकालस्स तप्यमाणत्तोवलभादो । जयव० ४ कुदो, अणुसमयोवणाकाल्त्स संखेनवारमणुसधिदस्त गहणादो | जयध०
५ संखेनागमसखेनागं वा णिस्संतकम्मियजीवाण सम्मत्तप्पायणाएं परिणदाणं विदियसमयस्मि पुण्यावरको डिवच्छेण तदुवलंभादो | जयघ०
६ तदुवक्रमणवारागमेत्तियमेत्ताणं णिरंतरसरूवेणोवलंमादो | जयघ०
७ विसजोयणा पुव्त्रतं जोजयाण कैन्तियाण पि जीवाणमेयसमयमवत्तन्यकम काढूण विदियसमए अवत्थंतरं गयाणमेयसमयमेत्तकालोवलमादो | जयव०