________________
३९८
कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार विशेषार्थ-संक्रमणके योग्य जो कर्मप्रदेश जिस-किसी विवक्षित प्रकृतिसे ले जाकर अन्य प्रकृतिके स्वभावसे परिणमित किये जाते है, उसे प्रदेशसंक्रमण कहते है । मूल प्रकृतियोका प्रदेश-संक्रमण नहीं होता, अर्थात् ज्ञानावरणकर्मके प्रदेश कभी भी दर्शनावरणकर्मरूपसे परिणत नहीं होगे। इससे यह स्वयंसिद्ध है कि उत्तरप्रकृतियोमें ही प्रदेशसंक्रमण होता है । तथापि उनमें दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयका, तथा चारों आयुकर्मोंका परस्परमे प्रदेशसंक्रमण नहीं होता। प्रदेशसंक्रमणके पाँच भेद है-उद्वेलनसंक्रमण, विध्यातसंक्रमण, अधःप्रवृत्तसंक्रमण, गुणसंक्रमण और सर्वसंक्रमण। अधःप्रवृत्त आदि तीन करण-परिणामोके विना ही कर्मप्रकृतियोके परमाणुओका अन्य प्रकृतिरूप परिणमित होना उद्वेलनसंक्रमण कहलाता है। उद्वेलन नाम उकेलनेका है। जैसे अच्छी तरहसे भेजी हुई रस्सी किसी निमित्तको पाकर उकलने लगती है और धीरे-धीरे बिलकुल उकल जाती है, उसी प्रकार कुछ कर्म-प्रकृतियाँ ऐसी हैं, जो कि बँधनेके बाद किसी निमित्तविशेपसे स्वयं ही उकलने लगती हैं और धीरे-धीरे वे एकदम उकल जाती है, अर्थात् उनके प्रदेश अन्य प्रकृतिरूपसे परिणत हो जाते हैं। उद्वेलन-प्रकृतियाँ १३ हैं, उनमेसे मोहकर्मकी केवल दो ही प्रकृतियाँ ऐसी हैं जिनकी उद्वेलना होती है, अन्यकी नहीं होती। वे दो प्रकृतियाँ हैं-सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति । अनादिकालीन मिथ्यादृष्टिके इनकी सत्ता नही होती, किन्तु जब प्रथम वार जीव औपशमिकसम्यक्त्वको प्राप्त करता है, तभी एक मिथ्यात्वके तीन टुकड़े हो जाते है और उस एक मिथ्यात्वके स्थान पर तीन प्रकृतियोंकी सत्ता हो जाती है। वह औपशमिकसम्यग्दृष्टि औपशमिकसम्यक्त्वको प्राप्त कर अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् नियमसे गिरता है और मिथ्यात्वी हो जाता है। उसके मिथ्यात्वगुणस्थानमे पहुँचनेपर अन्तर्मुहर्त तक तो अधःप्रवृत्तसंक्रमण होता है और उसके पश्चात् उद्वेलनासंक्रमण प्रारंभ हो जाता है । उद्वेलनासंक्रमणका उत्कृष्टकाल पल्योपमका असंख्यातवा भाग है । इतने काल तक वह बराबर इन दो प्रकृतियोकी उद्वेलना करता रहता है। उसका क्रम यह है कि प्रथमोपशमसम्यक्त्वीके मिथ्यात्वमे पहुँचनेके एक अन्तर्मुहूर्त पश्चात् सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिकी १ अंतोमुहत्तमद्धं पल्लासंखिजमेत्तठिइखंडं। उकिरइ पुणोवि तहा ऊणूणमसंखगुणहं जा ॥ ६२ ॥ तं दलियं सहाणे समए समए असंखगुणियाए । सेढीए परठाणे विसेसहाणीए संछुभइ ॥ ६३ ॥ जं दुचरिमस्स चरिमे अन्नं संकमइ तेण सव्वं पि। अंगुलअसंखभागेण हीरए एस उव्वलणा ॥ ६४ ॥ जासि ण वंधो गुण-भवपच्चयो तासि होइ विज्झाओ । अंगुलअसंखभागेणवहारो तेण सेसस्स ॥ ६८ ॥ गुणसंकमो अवज्झतिगाण असुभाणऽपुवकरणाई । वंधे अहापवत्तो परित्तिओ वा अबंधे वि ॥ ६९ ॥ कम्म३० पदेससक०