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कसाय पाहुड सुत्त
[ ५ संक्रम-अर्थाधिकार
जहण्णसंकमो अजहण्णसंकमो सादियसंकमो अणादियसंकमो धुवसंकमो अद्भुवसंकमो एगजीवेण सामित्तं कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरं सण्णियासो अप्पात्रहुगं भुजगारो* पदणिक्खेव वड्ढि त्ति ।
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१३१. ठाणसमुक्कित्तणा त्ति जं पदं तस्स विहासा जत्थ एगा गाहा । अट्ठावीस चउवीस सत्तरस सोलसेव पण्णरसा | एदे खलु मोत्तूर्ण सेसाणं संकमो होइ ॥ १ ॥
१३२. एवमेदाणि पंचाणाणि मोत्तृण सेसाणि तेवीस संकमण्णणि १३३. एत्थ पडिणिसो कायव्वो ।
नोसर्वसंक्रम, उत्कृष्टसंक्रम, अनुत्कृष्टसंक्रम, जघन्यसंक्रम, अजघन्य संक्रम, सादिसंक्रम, अनादिसंक्रम, ध्रुषसंक्रम, अध्रुवसंक्रम, एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर, सन्निकर्ष, अल्पबहुत्व, भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि | इनके द्वारा संक्रमणका अनुमार्गण करना चाहिए । १२८ - १३० ॥
चूर्णिसू० - इन उपर्युक्त अनुयोगद्वारोमे जो 'स्थानसमुत्कर्त्तना' यह पद है, उसकी विभाषा की जाती है । इस स्थानसमुत्कीर्तना नामक अनुयोगद्वार मे "अट्ठावीस चडवीस ० " इत्यादि एक सूत्रगाथा निवद्ध हैं । जिसका अर्थ इस प्रकार है - " अट्ठाईस, चौवीस, सत्तरह, सोलह और पन्द्रह-प्रकृतिक जो ये पाँच स्थान है, उन्हें छोड़कर शेप प्रकृतिक स्थानोंका संक्रम होता है ।" इस प्रकार इन पॉच स्थानोको छोड़कर शेप तेईस संक्रमस्थान होते है । यहॉपर प्रकृतियोका निर्देश करना चाहिए || १३१-१३३॥
विशेपार्थ - यहॉपर चूर्णिकारने प्रकृतियो के निर्देशकी जो सूचना की है, उसे संक्षेपमे इस प्रकार जानना चाहिए - मोहनीयकर्मके दो भेद है - दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय | दर्शनमोहनीयके तीन भेद होते है - मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति | चारित्रमोहनीयके दो भेद है - कपाय और नोकपाय । कपायके सोलह और नोकपायके नौ भेद होते है । ये सब मिलाकर मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियाँ हो जाती हैं । जहॉपर ये सब प्रकृतियाँ पाई जायें, वह अट्ठाईस प्रकृतिक स्थान है । जहॉपर उनमे से एक कम पाई जावे, वह सत्ताईस - प्रकृतिक स्थान है, जहॉपर दो कम पाई जावे, वह छत्र्वीस - प्रकृतिक स्थान है । इस प्रकार सर्व स्थानोको जानना चाहिए। किस स्थानमे किस किस प्रकृतिको कम करना चाहिए, इसका निर्णय आगे चूर्णिकार स्वयं करेगे ।
*जयधवलाकी ताम्रपत्रीय मुद्रित तथा हस्तलिखित प्रतियोमे 'भुजगारों' के पश्चात् 'अप्पदरो अवद्विदो अवत्तव्वगो' इतना पाठ और भी उपलब्ध होता है । पर ये तीनों तो भुजाकार अनुयोगद्वारके ही भीतर आ जाते है । क्योकि, उच्चारणावृत्ति और महावन्ध आदि में सर्वत्र अल्पतर, अवस्थित और अव क्तव्यका वर्णन भुजाकार अनुयोगद्वारमे ही किया गया है। तथा आगे या पीछे सर्वत्र भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि, इन तीनका ही निर्देश चूर्णिकारने किया है । प्रकृत प्रकृतिसक्रमण अधिकार के अन्तमं दी गई उच्चारणा वृत्तिमें भी इसी प्रकारमे वर्णन किया गया है, अतः हमने उक्त पाठको मूल में नहीं दिया है।