________________
२९०
कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार अवगदेसु । १४८. वावीसाए मिच्छत्ते खविदे सम्मामिच्छत्ते सेसे । १४९. अहवा चउवीसदिसंतकम्मियस्स आणुपुब्बीसंकमे कदे जाव णqसयवेदो अणुवसंतो । १५०. एकवीसाए खीणदंसणमोहणीयस्स अक्खवग-अणुवसामगस्स ।
१५१. चउवीसदिसंतकम्मियस्स वा णउंसयवेदे उवसंते इत्थिवेदे अणुवसंते'। १५२. चीसाए एकवीसदिसंतकम्मियस्स आणुपुयीसंकमे कदे जाव णqसयवेदो अणुवसंतो। १५३. चउवीसदिसंतकम्मियस्स वा आणुपुब्बीसंकमे कदे इत्थिवेदे उवसंते छसु कम्मेसु अणुवसंतेसु । १५४. एगूणवीसाए एकवीसदिसंतकम्मंसियस्स णqसयवेदे उनके विसंयोजन होनेपर चौवीसका सत्त्व होकर तेईस-प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है। इस कारणसे चौबीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान नहीं होता है ॥१४५-१४६॥
चूर्णिसू०--अनन्तानुबन्धी चारो कषायोके अपगत (विसंयोजित ) होनेपर चारित्रमोहनीयकी शेष इक्कीस तथा दर्शनमोहनीयकी दो प्रकृतियोके मिलानेपर तेईस-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करनेवाले जीवके मिथ्यात्वके क्षय होनेपर तथा सम्यग्मिथ्यात्वके शेप रहनेपर वाईस-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है। अथवा चौबीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामक जीवके आनुपूर्वी संक्रमण करनेपर जबतक उसके नपुंसकवेद अनुपशान्त है, अर्थात् नपुंसकवेदका उपशम नही हो जाता, तबतक उसके वाईस-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । जिसने दर्शनमोहनीयका क्षय कर दिया है, ऐसे अक्षपक और अनुपशामक जीवके इक्कीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ॥१४७-१५०॥
विशेषार्थ-उपशम या क्षपक श्रेणीपर चढ़नेवाले जीवके नवे गुणस्थानके संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जानेपर ही उपशामक या क्षपक संज्ञा प्राप्त होती है । अतः उससे पूर्ववर्ती सभी क्षायिकसम्यग्दृष्टियोका यहाँ अक्षपक और अनुपशामक पदसे ग्रहण किया गया है ।
चूर्णिसू०-अथवा चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाले जीवके नपुंसकवेदके उपशान्त हो जानेपर तथा स्त्रीवेदके अनुपशान्त रहने तक इक्कीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है । इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले जीवके आनुपूर्वी-संक्रमण करनेपर जबतक नपुंसकवेद अनुपशान्त रहता है, तबतक वीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है। अथवा चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाले जीवके आनुपूर्वी-संक्रमण करनेपर नपुंसकवेदकी उपशामनाके पश्चात् स्त्रीवेदके उपशान्त होनेपर तथा हास्यादि छह नोकपायोके अनुपशान्त रहनेपर भी वीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ।
१. जेणेद सुत्त देसामासियं, तेण चउवीससतकम्मिय-उवसमसम्माइहिस्स सासणभाव पडिवण्णस्स पढमावलिमाए चउवीससतकम्मियसम्मामिच्छाइहिस्स वा इगिवीससंकमट्ठाणं पयारतरपडिग्गहिय होह त्ति वत्तव्व, तत्थ पयारतरपरिहारेण पयदसकमट्ठाणसिद्धीए णिव्वाहमुवल भादो । अदो चेव ओदरमाणगस्स वि चउबीससतकम्मियत्स सत्तसु कम्मेसु ओकड्डिदेसु जाव इस्थि-णवु सयवेदा उवसता ताव इगिवीससंतकम्मट्टाणसभवो सुत्त तन्भूदो वक्खाणेयव्यो । जयध०
२. ओदरमाणगस्स पुण णवु सयवेदे उवसते चेय पयदसकमठाणसंभवो त्ति एसो वि अत्थो एत्येव सुत्त णिलीणो त्ति वक्खाणेवव्वो । जयध०