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कसाय पाहुड सुन्त
[ ५ संक्रम-अर्थाधिकार
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तिन्हं खवगस्स पुरिसवेदे खीणे सेसेसु अक्खीणेसु । १८३. अधवा एकावीसदिकम्पसियस्स दुविहाए मायाए उवसंताप सेसेसु अणुवसंतेसु । १८४. दोन्हं खवगस्स को हे खविदे सेसेसु अक्खीणेसु । १८५ अहवा एकावीसदिकम्मंसियस्स निविहाए मायाए उवसंताप सेसेसु अणुवसंतेसु । १८६ अहवा चउवीसदिकम्मंसियस्स दुविहे लोहे उवसंते । १८७ सुहुमसां पराइय उवसामयस्स वा उवसंतकसायरस वा । १८८. एकिस्से संकमो खवगस्स माणे खविदे मायाए अक्खीणाए ।
१८९. एतो पदाणुमाणियं सामित्तं यव्वं ।
कपायके उपशान्त होनेपर और शेप कर्मोंके अनुपशान्त रहनेपर दो मध्यम लोभ और दो दर्शनमोहनीय, इन चारका संक्रमण होता है । क्षपकके पुरुपवेदके क्षय होनेपर और कपायोके अक्षीण रहनेपर क्रोध, मान और माया इन तीन संज्वलनोका संक्रमण होता है । अथवा इक्कीस प्रकृतियो के सत्तावाले क्षायिकसम्यक्त्वी उपशामक के दोनो मायाकषायोके उपशान्त होनेपर और शेप कपायोके अनुपशान्त रहनेपर मायासंज्वलन और दोनो मध्यम लोभ, इन तीन प्रकृतियोका संक्रमण होता है । क्षपकके संज्वलनक्रोधका क्षय करनेपर और शेप कपायोके अनुपशान्त रहनेपर संज्वलन मान और माया इन दो प्रकृतियोका संक्रमण पाया जाता है । अथवा इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामक के तीनो मायाकपायोके उपशान्त हो जानेपर और शेषके अनुपशान्त रहनेपर अप्रत्याख्यानावरणलोभ और प्रत्याख्यानावरणलोभ, इन दो प्रकृतियोका संक्रमण पाया जाया है । अथवा चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके दो प्रकारके लोभ के उपशान्त हो जानेपर दर्शनमोहनीयकी दो प्रकृतियोका संक्रमण पाया जाता है | दर्शनमोहनीयकी दो प्रकृतियोका उपशमन करनेवाला यह दो - प्रकृतिक संक्रमस्थान सूक्ष्मसाम्पराय - उपशामकके अथवा उपशान्तकपायवीतरागछद्मस्थ के होता है । क्षपकके संज्वलनमानकषायके क्षय हो जानेपर और संज्वलनमायाके अक्षीण रहनेपर एक प्रकृतिका संक्रमण होता है ।। १८०-१८८॥
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चूर्णिसू० - अव, इस स्थान - समुत्कीर्तनाके पश्चात् पूर्वोक्त अर्थपदोके द्वारा आनुपूर्वी संक्रम आदिके साथ अनुमान करके संक्रमस्थानो के स्वामित्वको जानना चाहिए || १८९ ॥ विशेषार्थ-संक्रमस्थानोकी स्थानसमुत्कीर्तनाके अनन्तर और स्वामित्व - अनुयोगद्वारके पूर्वतक मध्यवर्ती जो सर्वसंक्रम, नोसर्वसंक्रम आदि दश अनुयोगद्वार है, उनमे से सर्वसंक्रम, उत्कृष्टसंक्रम, अनुत्कृष्टसंक्रम, जघन्यसंक्रम और अजवन्यसंक्रम ये छह अनुयोगद्वार प्रकृत संक्रमस्थान-प्ररूपणामे संभव ही नही है, इसलिए, तथा सादिसंक्रम, अनादिसंक्रम, ध्रुवसंक्रम और अध्रुवसंक्रम, इन चार अनुयोगद्वारोकी प्ररूपणा सुगम है, इसलिए चूर्णिकारने उनका कोई उल्लेख नहीं किया है । संक्रमस्थानोंके स्वामित्वका वर्णन अवश्य करना चाहिए, पर ऊपरके चूर्णि सूत्रो से बहुत अंगो में उसका भी प्ररूपण हो ही जाता है, अतः उसे न कहकर इस चूर्णिसूत्र के द्वारा उसे जान लेनेका निर्देश किया गया है । अतएव यहाँ पहले सादिसंक्रम