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संक्रम अनुयोगद्वार संसूचन
सादि य जहण्णसंकम कदिखुत्तो होइ ताव एक्केक्के । अविरहिद सांतरं केवचिरं कदिभाग परिमाणं ॥ ५७ ॥ एवं दव्वे खेत्ते काले भावे य सणिवादे य । संकमणयं विदू या सुददे सिदमुदारं ॥ ५८ ॥
१२८. सुत्तसमुक्कित्तणाए समत्ताए इमे अणियोगद्दारा । १२९. तं जहा । १३०. ठाणसमुक्कित्तणा सव्वसंकमो णोसव्वसंकमो उक्कस्तसंकमो अणुक्कस्तसंकमो बन्ध और संक्रमस्थानोकी, तथा एक एक संक्रमस्थानको आधार बनाकर वन्ध और सत्वस्थानोके परिवर्तन के द्वारा द्विसंयोगी भंगोको निकालनेकी भी सूचना ग्रन्थकारने 'एक्केण समाणय' पदके द्वारा की है, सो विशेष जिज्ञासु जनोको जयधवला टीकासे जानना चाहिए । प्रकृतिस्थानसंक्रम अधिकार में सादिसंक्रम जघन्यसंक्रम, अल्पबहुत्व, काल, अन्तर, भागाभाग और परिमाण अनुयोगद्वार होते हैं । इस प्रकार नय- विज्ञ जनों को तोपदिष्ट, उदार अर्थात् विशाल और गम्भीर संक्रमण द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और सन्निपात अर्थात् सन्निकर्षकी अपेक्षा जानना चाहिए ॥ ५७-५८ ॥
विशेषार्थ-प्रकृतिस्थानसंक्रमनामक अधिकारसे कितने अनुयोगद्वार होते है, इस बातका वर्णन इन दोनो गाथाओके द्वारा किया गया है । जिसमेंसे कुछ अनुयोगद्वारोंके नाम तो गाथामें निर्दिष्ट हैं और कुछकी 'च' पदके द्वारा, नामैकदेशसे या प्रकारान्तरसे सूचना की गई है । जैसे - एक - एक संक्रमस्थान मे कितने जीव होते है, इस पद से अल्पबहुत्व - की सूचना की गई है । 'अविरहित' पदसे एक जीवकी अपेक्षा काल, 'सान्तर' पदसे एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, 'कति भाग' पदसे भागाभाग, ' एवं ' पदसे भंगविचय, 'द्रव्य' पदसे द्रव्यानुगम, 'क्षेत्र' पदसे क्षेत्रानुगम और स्पर्शनानुगम, 'काल' पदसे नानाजीवोकी अपेक्षा कालानुगम और अन्तरानुगम तथा 'भाव' पदसे भावानुगम कहे गये है । इनके अतिरिक्त ध्रुवसंक्रम, अध्रुवसंक्रम, सर्वसंक्रम, नोसर्वसंक्रम, उत्कृष्टसंक्रम, अनुत्कृष्टसंक्रम और अजघन्य संक्रम, इन सात अनुयोगद्वारोकी सूचना प्रथम गाथा - पठित 'च' पदसे की गई है। द्वितीय गाथा-पठित 'च' पदसे भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि आदिक अनुयोगद्वारोका ग्रहण किया गया है । इस प्रकार गाथा - पठित या गाथा सूचित इन उपर्युक्त सर्व अनुयोगद्वारोमे संक्रम अधिकारको भले प्रकार जानना चाहिए, ऐसी सूचना गाथासूत्र - कारने की है । इन्ही आधार पर चूर्णिकारने आगे यथासंभव कुछ अनुयोगद्वारोसे संक्रमकी प्ररूपणा की है । चूर्णिसू०० - इस प्रकार संक्रमण सम्वन्धी गाथा- सूत्रोकी समुत्कीर्तनाके समाप्त होनेपर ये वक्ष्यमाण अनुयोगद्वार ज्ञातव्य है । वे इस प्रकार है - स्थानसमुत्कीर्तना, सर्वसंक्रम,
गा० ५८ ]
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* ताम्रपत्रवाली प्रतिमे 'अणियोगद्दारगाहा' ऐसा पाठ मुद्रित है । पर 'गाहा' यह पद टीकाका अश है जो कि 'गाहा' पदको जोडनेपर 'गाहासुत्तसमुक्कित्तणा- ऐसा सुन्दर और प्रकरण-सगत पाठ बन जाता है । (देखो पृ० ९८७ )