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गा० ३० ] प्रतिग्रहस्थानोमे संक्रमस्थान-निरूपण
२६३ छव्वीस सत्तवीसा य संकमो णियम चदुसु हाणेसु । वावीस पण्णरसगे एकारस ऊणवीसाए ॥२९॥ सत्तारसेगवीसासु संकमो णियम पंचवीसाए ।
णियमा चदुसु गदीसु य णियमा दिट्ठीगए तिविहे ॥३०॥ लन लोभ प्रतिग्रह-प्रकृति नहीं रहती इसलिए दो-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है। जो क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव उपशमश्रेणीपर चढ़ता है, उसकी अपेक्षा विचार करनेपर अनिवृत्तिकरण. उपशामकके पॉच प्रकृतियोका बन्ध होता है, इसलिए पॉच-प्रकृतिक पहला प्रतिहप्रस्थान होता है। पुनः नपुंसकवेद और स्त्रीवेदका उपशम हो जानेपर पुरुपवेदके प्रतिग्रह-प्रकृति न रहनेसे चार-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है । पुनः सात नोकषाय और दो क्रोधकपायोके उपशम होनेपर क्रोधसंज्वलनके प्रतिग्रह-प्रकृति न रहनेसे तीन-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है । पुनः क्रोधसंज्वलन प्रतिग्रह-प्रकृति नही रहती, इसलिए दो-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है। पुनः मानसंज्वलनके साथ दोनो मायाकपायोके उपशम हो जानेपर एक लोभप्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है । क्षपकश्रेणीकी अपेक्षा भी अनिवृत्तिकरणमे ये ही अन्तिम पाँच प्रतिग्रहस्थान होते हैं।
बाईस, पन्द्रह, ग्यारह और उन्नीस-प्रकृतिक चार प्रतिग्रहस्थानों में ही छब्बीस और सत्ताईस-प्रकृतिक स्थानोंका नियमसे संक्रम होता है ॥२९॥
विशेषार्थ-इस गाथामे छब्बीस और सत्ताईस-प्रकृतिक दो संक्रमस्थानोके वाईस, उन्नीस, पन्द्रह और ग्यारह-प्रकृतिक चार प्रतिग्रहस्थान वताये है-जो सम्यक्त्वप्रकृति के विना सत्ताईस प्रकृतियोकी सत्तावाला मिथ्यादृष्टि जीव है, उसके छब्बीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान और बाईस-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है । तथा जो छब्बीस प्रकृतियोकी सत्तावाला मिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वको, उपशमसम्यक्त्वके साथ संयमासंयमको और उपशमसम्यक्त्वके साथ संयमको प्राप्त होता है उसके इनको प्राप्त करनेके प्रथम समयमे क्रमसे उन्नीस-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान, पन्द्रह-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान, ग्यारह-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान और छब्बीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । तथा अट्ठाईस प्रकृतियोकी सत्तावाले मिथ्यादृष्टि जीवके सत्ताईस-प्रकतिक संक्रमस्थान और बाईस-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है । और इस जीवके पूर्ववत् उपशमसम्यक्त्व, उपशमसम्यक्त्वके साथ संयमासंयम, तथा उपशमसम्यक्त्वके साथ संयमके ग्रहण करनेपर दूसरे समयसे लेकर अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना न होने तक क्रमसे उन्नीस, पन्द्रह, और ग्यारह-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान, तथा सत्ताईस-प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ।
सत्तरह और इक्कीस-प्रकृतिक दो प्रतिग्रहस्थानोंमें पच्चीस-प्रकृतिक स्थानका नियमसे संक्रमण होता है । यह पच्चीस-प्रकृतिक संकमस्थान नियमसे चारों ही गतियों१ छब्बीस-सत्तवीसाण सकमो होइ चउसु ठाणेसु । बावीस पन्नरसगे इक्कारस इगुणवीसाए ॥१२॥ २ सत्तरस इकवीसासु सकमो होइ पन्नवीसाए । णियमा चउसु गईसु णियमा दिट्ठीक ए तिविहे ॥१३॥कम्मप०