________________
२७७
~~~
गा०४९]
मार्गणाओमे संक्रमस्थान-निरूपण णाणाम्हि य तेवीसा तिविहे एकम्हि एक्कवीसा य । अण्णाणम्हि य तिविहे पंचेव य संकमट्ठाणा ॥४७॥ आहारय भविएसु य तेवीसं होति संकमट्ठाणा । अणाहारएसु पंच य एक्कं ठाणं अभविएसु ॥४८॥ छव्वीस सत्तावीसा तेवीसा पंचवीस वावीसा । एदे सुष्णटाणा अवगदवेदस्स जीवस्स ॥४९॥ ___ मति, श्रुत और अवधि इन तीनों ज्ञानोंये तेईस संक्रमस्थान होते हैं। एकमें अर्थात् मनःपर्ययज्ञानमें पच्चीस और छब्बीस-प्रकृतिक दो स्थान छोड़कर शेष इक्कीस संक्रमस्थान होते हैं । कुमति, कुश्रुत और विभंग, इन तीनों ही अज्ञानोंमें सत्ताईस, छब्बीस, पच्चीस, तेईस और इक्कीस-प्रकृतिक पाँच संक्रमस्थान होते हैं ॥४७॥
विशेषार्थ-यद्यपि पञ्चीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान सम्यग्सिथ्यादृष्टि जीवके ही होता है, तथापि यहॉपर मतिज्ञानादि तीनो सद्-ज्ञानोमे अशुद्ध-नयके अभिप्रायसे उसका निरूपण किया गया है, ऐसा समझना चाहिए। प्रथमोपशमसम्यक्त्वके ग्रहण करनेके प्रथम समयमे पाये जानेवाले छब्बीस-प्रकृतिक संक्रमस्थानका अवधिज्ञानमे जो प्रतिपादन किया गया है वह देव और नारकियोकी अपेक्षासे जानना चाहिए , क्योकि उनके प्रथमोपशमसम्यक्त्वके ग्रहण करनेके प्रथम समयमे ही अवधिज्ञानकी उत्पत्ति देखी जाती है। शेप गाथार्थ स्पष्ट ही है । इसी गाथाके द्वारा देशामर्शकरूपसे दर्शनमार्गणाके संक्रमस्थानोका भी निरूपण किया गया है, क्योकि मति, श्रुत और अवधिज्ञानके संक्रमस्थानोसे चक्षु, अचक्षु और अवधिदर्शनके संक्रमस्यानोका निरूपण हो जाता है । अर्थात् इन तीनो प्रकारके दर्शनोमे तेईस-तेईस संक्रमस्थान पाये जाते है।
अब भव्यमार्गणा और आहारमार्गणामे संक्रमस्थानोका निरूपण करते है
आहारक और भव्य जीवोमें तेईस ही संक्रमस्थान होते हैं। अनाहारकोंमें सत्ताईस, छब्बीस, पच्चीस, तेईस और इक्कीस-प्रकृतिक पाँच संक्रमस्थान होते हैं । अभव्योंमें पच्चीस-प्रकृतिक एक ही संक्रमस्थान होता है ॥४८॥
अब अपगतवेदी जीवोमे नही पाये जानेवाले संक्रमस्थानोका निरूपण करते हैं
अपगतवेदी जीवके छब्बीस, सत्ताईस, तेईस, पच्चीस और वाईस-प्रकृतिक पंच शून्यस्थान होते हैं, अर्थात् ये पाँच संक्रमस्थान नहीं पाये जाते हैं ॥४९॥
अव नपुंसकवेदी जीवोमे नही पाये जानेवाले संक्रमस्थानो प्रतिपादन करते है१ जत्थ ज सकमट्ठाण ण सभवइ, तत्थ तस्स सुण्गट्टाणववएसो । जयध०