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वेदक०
२८०
कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रम-अर्थाधिकार कम्मंसियट्ठाणेलु य बंधहाणेसु संकमट्ठाणे । एक्कक्केण समाणय बंधेण य संकमाणे ॥ ५६ ॥ (चक्षुदर्शिनी । सर्व संक्रमस्थान
सर्व प्रतिग्रहस्थान ९ दर्शन , अचक्षुदर्शिनी ,
(अवधिदनिनी २५ को छोड़कर शेष २२ । २२ और २१ को छोड़कर शेष १६ (कृष्ण २७, २६, २५, २३, २१ | २२, २१, १९, १८, १७ ।
नील०
| कापोत० १० लेश्या , र तेज २७, २६, २५, २३, २२, २१ २२, २१, १९, १८, १७, १५,
१४, १३, ११, १०, ९ पद्म (शुक्ल सक्रमस्थान
सर्व प्रतिग्रस्थान भव्य ११ भव्य
अभव्य (ोपामिक २७, २६, २३, २२, २१, २०,१४, १९, १५, ११, ७, ६, ५, ४, ३, २ ।
१३, ११, १०,८,७,५, ४, २ शायिक० २१, २०, १९,१८,१३,१२,११, १७,१३,९,५,४,३,२,१
१०, ९, ८, ६, ५, ४, ३, २,१ १२ सम्यक्त्व २७, २३, २२, २१
| १९,१८,१७,१५,१४,१३,११,१०,९ सम्यग्मि० ६५, २१
१७ सासादन० मिथ्या० | २७, २६, २५, २३
२२, २१ संजी १३ सनि सर्व सक्रमस्थान
सर्व प्रतिग्रहस्थान । " असजी २ ७, २६, २५
२२, २१ आहारक सर्व सक्रमस्थान
सर्व प्रतिग्रहस्थान १४ आहार ,
अनाहारक । २७, २६, २५, २३, २१ । २२, २१, १९, १७
अब ग्रन्थकार मोहनीयकर्मके वन्धस्थान और सत्त्वस्थानके साथ संक्रमस्थानोके एक-संयोगी, द्वि-संयोगी भंगोको निकालने के लिए सन्निकर्षकी सूचना करते है
कर्माशिक स्थानमें अर्थात् मोहनीयके सत्त्वस्थानोंमें और बन्धस्थानोंमें संक्रमस्थानोंकी गवेषणा करना चाहिए। तथा एक-एक बन्धस्थान और सत्त्वस्थानके साथ संयुक्त संक्रमस्थानोंके एक-संयोगी, द्वि-संयोगी भंगोको निकालना चाहिए ॥५६॥
विशेपार्थ-इस गाथाके द्वारा ओघ और आदेशकी अपेक्षासे निरूपण किये संक्रमस्थानो और उनके प्रतिनियत प्रतिग्रहस्थानोका बन्धस्थानों और सत्त्वस्थानोमें अनुमागण करनेका संकेत किया गया है । यहॉपर उनका कुछ स्पष्टीकरण किया जाता है-काशिकस्थान सत्कर्मस्थान और सत्त्वस्थान, ये तीनो पर्यायवाची नाम है। मोहकर्मके सत्त्वस्थान पन्द्रह होते हैं-२८, २७, २६, २४, २३, २२, २१, १३, १२, ११, ५, ४, ३, २ और
। मोहकर्मके बन्धस्थान दश होते हैं-२२, २१, १७, १३, ९, ५, ४, ३, २ और १ । मोहकर्मके तेईस संक्रमस्थान पहले बतलाये जा चुके है। अब सत्त्वस्थानोमे उन संक्रमस्थानोका अनुमार्गण करते है-जिस मिथ्यादृष्टि जीवके अट्ठाईस प्रकृतियोंका सत्त्व है