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गा० ३३] प्रतिग्रहस्थानों में संक्रमस्थान-निरूपण
२६५ चोदसग दसग सत्तग अट्ठारसगे च णियम वाचीसा । णियमा मणुसगईए विरदे मिस्से अविरदे यं ॥३२॥ तेरसय णक्य सत्तय सत्तारस पणय एकवीसाए । एगाधिगाए वीसाए संकमो छप्पि सम्मते ॥३३॥
वाईस-प्रकृतिक स्थानका संक्रम नियमसे चौदह, दश, सात और अट्ठारह प्रकृतिक चार प्रतिग्रहस्थानोंमें होता है। यह बाईस-प्रकृतिक संक्रमस्थान नियमसे मनुष्यगतिमें ही होता है । तथा वह संयत, संयतासंयत और असंयतसम्यग्दृष्टि गुण. स्थानमें होता है ॥३२॥
विशेषार्थ-इस गाथामे मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्क, इन छह प्रकृतियोके विना शेप वाईस-प्रकृतिक संक्रमस्थानका अट्ठारह, चौदह, दश और सातप्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानोमे संक्रम होता है, यह बतलाया गया है। अट्ठारह-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान अविरतसम्यग्दृष्टिके, चौदह-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान देशसंयतके, दश-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान प्रमत्त-अप्रमत्तसंयतके और सात-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान जिस अनिवृत्तकरण संयतके आनुपूर्वी संक्रम प्रारम्भ हो गया है, उसके होता है। यहाँ दो वाते ध्यान देनेके योग्य हैं-प्रथम यह कि प्रारम्भके तीन स्थानोमें जिसने दर्शनमोहकी क्षपणा करते समय मिथ्यात्वका अभाव कर दिया है, उसके उक्त प्रतिग्रहस्थानोमे वाईस प्रकृतियोका संक्रम होता है । दूसरी यह कि अनिवृत्तिकरणमे आनुपूर्वीसंक्रमके प्रारम्भ हो जानेपर लोभसंज्वलनका संक्रम नहीं होता है, अतएव यह जीव चौबीस प्रकृतियोकी सत्तावाला होगा, इसलिए इसके लोभसंज्वलन और सम्यक्त्वप्रकृतिको छोड़कर शेष बाईस प्रकृतियोका सात-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे संक्रम होता है।
इक्कीस-प्रकृतिक स्थानका संक्रम तेरह, नौ, सात, पाँच, सत्तरह और इक्कीसप्रकृतिक छह प्रतिग्रहस्थानोंमें होता है । ये छहों ही प्रतिग्रहस्थान सम्यक्त्वसे युक्त गुणस्थानों में होते हैं ॥३३॥'
विशेषार्थ-इस गाथामे यह बतलाया गया है कि इक्कीस-प्रकृतिक संक्रमस्थानका तेरह आदि छह प्रतिग्रहस्थानोमे संक्रम होता है, क्योकि क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासंयतके प्रकृत संक्रमस्थानका तेरह-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान संभव है । प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण संयतके नौ-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान संभव है और अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती उपशामक और क्षपकके पॉच-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान संभव है । सत्ताकी अपेक्षा अनिवृत्तिकरणगुण
१ चोद्दसग दसग सत्तग अट्ठारसगे य होइ बावीसा ।
णियमा मणुयगईए णियमा दिट्ठीकए दुविहे ॥ १५ ॥ २ तेरसग णवग सत्तग सत्तरसग पणग एकवीसासु ।
एक्कावीसा सकमा सुद्धसासाणमीसेसु ।। १६ ॥ कम्मप० स०
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