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गा०२३]
संक्रमण-उपक्रम-निरूपण संकमे इच्छइ । ६. संगह-ववहारा कालसंकममवणेति । ७. उजुसुदो एदं च ठवणं च अवणेइ । ८. सदस्स णामं भावो य ।।
९. णोआगमदो दबसंकमो ठवणिज्जो। १०. खेत्तसंकमो जहा-उड्डलोगो संकतो । ११. कालसंकमो जहा-संकतो हेमंतो । १२. भावसंकमो जहा- संकंतं पेम्मं ।
१३. जो सो णोआगमदो दव्वसंकमो सो दुविहो-कम्मसंकमो च णोकम्मसंकमो च । १४. णोकम्मसंकमो जहा- कट्ठसंकमो *| १५. कम्मसंकमो चउविहो । तं जहा-पयडिसंकमो डिदिसंकमो अणुभागसंकमो पदेससंकमो चेदि । १६. पयडिसंक्रमो दुविहो । तं जहा-एगेगपयडिसंकमो पयडिट्ठाणसंकमो च ।। है। क्योकि, संग्रहनयकी दृष्टिमे कालके भूत, भविष्यत् आदि भेद नहीं है और न व्यवहारनयकी अपेक्षा उनमे व्यवहार ही हो सकता है । ऋजुसूत्रनय कालसंक्रम और स्थापनासंक्रम- . को छोड़ देता है। क्योकि वह तद्भवसामान्य और सादृश्यसामान्यको विपय नहीं करता। शब्दनय नामसंक्रम और भावसंक्रमको ही विषय करते है। क्योकि शुद्ध पर्यायार्थिक रूपसे शब्दनयोमे शेष निक्षेपोको विषय करना संभव नहीं है । ॥ ५-८ ॥
अब निक्षेपकी अपेक्षा संक्रमकी प्ररूपणा की जाती है। ऊपर बतलाये गये छह प्रकारके निक्षेपोमे नामसंक्रम, स्थापनासंक्रम और आगमकी अपेक्षा द्रव्य-संक्रम ये तीनो सुगम हैं, अतएव उन्हे न कहकर चूर्णिकार शेष निक्षेपोका वर्णन करते है
चूर्णिसू०-नोआगम-द्रव्यसंक्रम वहुवर्णनीय है, अतः उसे अभी स्थगित रखना चाहिए । क्षेत्रसंक्रम इस प्रकार है-ऊर्ध्वलोक संक्रान्त हुआ । अर्थात् ऊर्ध्वलोकवासी देवोके मध्यलोकमें आनेपर ऐसा व्यवहार होता है, यह क्षेत्रसंक्रम है। हेमन्त संक्रान्त हुआ, अर्थात् वर्षाऋतुके चले जानेपर अव हेमन्त ऋतुका आगमन हुआ है, यह कालसंक्रम है। प्रेम संक्रान्त हुआ, अर्थात् अन्य व्यक्तिपर जो स्नेह था, वह उससे हटकर किसी अन्य व्यक्तिपर चला गया, यह भावसंक्रम है ॥ ९-१२ ॥
चूर्णिसू०-जो पूर्वमे स्थगित नोआगमद्रव्यसंक्रम है, वह दो प्रकारका है-कर्मसंक्रम और नोकर्मसंक्रम । नोकर्मसंक्रम इस प्रकार है, जैसे-काष्ठसंक्रम ॥ १३-१४ ॥
विशेषार्थ-काष्ठकी बनी हुई नौका आदिके द्वारा एक स्थानसे अन्य स्थानपर जानेको काष्ठसंक्रम कहते है । यह उदाहरण उपलक्षणरूप है, अतः प्रस्तरसंक्रम, मृत्तिकासंक्रम, लोहसंक्रम आदि अनेक प्रकारके सव द्रव्याश्रित संक्रम इस नोकर्मसंक्रमके अन्तर्गत आ जाते है।
चूर्णिसू०-कर्मसंक्रम चार प्रकारका है :-प्रकृतिसंक्रम, स्थितिसंक्रम, अनुभागसंक्रम और प्रदेशसंक्रम । इनमेसे प्रकृतिसंक्रमके दो भेद हैं। वे इस प्रकार है-एकैकप्रकृतिसंक्रम और प्रकृतिस्थानसंक्रम ॥ १५-१६ ॥
* ताम्रपत्रवाली प्रतिमें इस सूत्रके आगे वह एक सूत्र और मुद्रित है-"णईतोये अण्णत्थ वा कत्थ चि कट्टाणि हविय जेणिच्छिदपदेस गच्छंति सो कट्ठमओ संकमो'। (देखो पृ० ९६०) पर वस्तुतः यह सूत्र नहीं, किन्तु टीकाका अश है, जिसमें कि 'काष्ठसंक्रमकी व्याख्या की गई है।