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गा० २६] प्रकृतिसंक्रमण-उपक्रम-निरूपण
२५३ २०. एदाओ तिषिण गाहाओ पयडिसंकमे । २१. एदासिं गाहाणं पदच्छेदो। २२. तं जहा । २३. 'संकम उवकमविही पंचविहो' त्ति* एदस्स पदस्स अत्थो-पंचविहो उवकमो, आणुपुव्वी णामं पमाणं वत्तव्यदा अत्थाहियारो चेदि । २४. 'चउत्रिहो य णिक्खेवो' त्ति णाम-हवणं वज्ज, दव्वं खेत्तं कालो भावो च । २५. 'णयविधि पयद' ति एत्थ णओ वत्तव्यो । २६. 'पयदे च णिग्गमो होइ अट्टविहो' त्ति-पयडिसंकमो पयडि-असंक्रमो पयडिट्ठाणसंकमो पयडिट्ठाण-असंकयो पयडिपडिग्गहो पयडि-अपडिग्गहो
विशेषार्थ-निकलनेको निर्गम कहते है । प्रकृतमे संक्रम विवक्षित है, अतः उसकी अपेक्षा निर्गमके तीसरी सूत्रगाथामे आठ भेद बतलाये गये हैं। उनका संक्षेपमे अर्थ इस प्रकार है-मिथ्यात्वप्रकृतिका सम्यग्मिथ्यात्व या सम्यक्त्वप्रकृतिरूपसे परिवर्तित होनेको प्रकृतिसंक्रम कहते है ( १ )। मिथ्यात्वका मिथ्यादृष्टिमे रहना, सम्यग्मिथ्यात्वका सम्यग्मिथ्यादृष्टिमें रहना, यह प्रकृति-असंक्रम कहलाता है (२) । मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोकी सत्तावाले मिथ्यादृष्टिमे सत्ताईस प्रकृतिरूप स्थानके परिवर्तनको प्रकृतिस्थानसंक्रम कहते हैं (३) । अट्ठाईस प्रकृतियोकी सत्तावाले मिथ्याष्टिका अट्ठाईस प्रकृतियोके सत्त्वरूप स्थानमे ही रहना प्रकृतिस्थान-असंक्रम कहलाता है (४)। मिथ्यात्वका मिथ्यादृष्टिमे पाया जाना यह प्रकृति-प्रतिग्रह कहलाता है (५)। मिथ्यात्वमे सम्यग्मिथ्यात्व या सम्यक्त्वप्रकृतिके संक्रमित नहीं होनेको, अथवा दर्शनमोहनीयका चारित्रमोहनीयमे और चारित्रमोहनीयका दर्शनमोहनीयमे संक्रमण नही होनेको प्रकृति-अप्रतिग्रह कहते है (६) । मिथ्यादृष्टिमे बाईस प्रकृतियोके समुदायरूप स्थानके पाये जानेको प्रकृतिस्थान-प्रतिग्रह कहते है (७) । मिथ्यादृष्टिमें सोलह प्रकृतिरूप स्थानके नहीं पाये जानेको प्रकृतिस्थान-अप्रतिग्रह कहते हैं (८) । इस प्रकार निर्गमके आठ भेद है।
चूर्णिसू०-प्रकृति-संक्रममे ये उपयुक्त तीन गाथाएँ निबद्ध है। अब इन गाथाओका पदच्छेद किया जाता है। वह इस प्रकार है-'संक्रम-उपक्रमविधि पाँच प्रकारकी है', प्रथम गाथाके इस प्रथम पदका यह अर्थ है-संक्रमसम्बन्धी उपक्रमके पॉच भेद है-आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थाधिकार । 'निक्षेप चार प्रकारका होता है' इस द्वितीय पदका यह अर्थ है-पहले जो निक्षेपके छह भेद बतलाये गये है, उनमेसे नाम और स्थापनाको छोड़कर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, ये चार निक्षेप प्रकृतमे ग्रहण करना चाहिए। 'नयविधि प्रकृत है' गाथाके इस तीसरे पदका यह अर्थ है कि यहॉपर नय कहना चाहिए। 'प्रकृतमे निर्गम आठ प्रकारका है' गाथाके इस अन्तिम पदका यह अर्थ है कि निर्गमके आठ भेद है-( १ ) प्रकृतिसंक्रम, (२) प्रकृति-असंक्रम, (३) प्रकृतिस्थानसंक्रम, ( ४ ) प्रकृति
___® ताम्रपत्रवाली प्रतिमें आगेके सूत्रागको टीकाका अग बना दिया है, जब कि इस सूत्रकी टीका 'सकमउवकमविही पचविहो त्ति एदस्स पढमगाहापुव्वद्धावयवपयदस्स' यहाँ से प्रारभ होती है।
(देखो पृ० ९६२ )