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४ बंधग-अत्थाहियारो १. बंधगेत्ति एदस्स वे अणियोगद्दाराणि । तं जहा-बंधो च संक्रमो च । २. एत्थ सुत्तगाहा ।
(५) कदि पयडीयो बंधदि हिदि-अणुभागे जहण्णमुक्कस्सं । संकामेइ कदि वा गुणहीणं वा गुणविसिढें ॥२३॥
४ बंधक अर्थाधिकार कर प्रणाम जिन देवको सविनय वारस्वार ।
बंध और संक्रम कहूं, चूणि-सूत्र अनुसार ॥ अव ग्रन्थकार क्रम-प्राप्त चौथे वन्धक अर्थाधिकारको कहते हैं
चूर्णिम् ०-इस बन्धक नामक अर्थाधिकारमे दो अनुयोगद्वार हैं । वे इस प्रकार हैं-बन्ध और संक्रम ।।१।।
विशेषार्थ-कर्मरूप परिणमनके योग्य पौगलिक स्कन्धोका मिथ्यात्व आदि परिणामोके वशसे कर्मरूप परिणत होकर जीवके प्रदेशोके साथ एक क्षेत्रावगाहरूपसे संबद्ध होनेको वन्ध कहते हैं। वन्ध होनेके अनन्तर उन कर्म-प्रदेशोका परिणामोके वशसे परप्रकृतिरूपसे परिणत होनेको संक्रम या संक्रमण कहते है। ये दोनो ही प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेदसे चार-चार प्रकारके होते हैं। यहाँ स्वभावतः यह शंका उठती है कि बंधक-अधिकारके भीतर ही संक्रमण-अधिकारको क्यो कहा ? उसे स्वतंत्र ही कहना चाहिए था ? इसका उत्तर यह है कि बन्धकी ही विशिष्ट अवस्थाको संक्रम कहते हैं । वस्तुतः वन्ध दो प्रकारका है-अकर्मवन्ध
और कर्मवन्ध । अकर्मरूपसे अवस्थित कार्मण-वर्गणाओका आत्माके साथ संबद्ध होना अकर्मवन्ध है और विवक्षित कर्मरूपसे बंधे हुए पुद्गल-स्कन्धोका अन्य कर्मप्रकृतिरूपसे परिणमन होना कर्मवन्ध है । जैसे-असातावेदनीयरूपसे बंधे हुए कर्मका सातावेदनीयरूपसे परिणत होना । इस प्रकारसे संक्रम भी वन्धके ही अन्तर्गत आ जाता है।
चूर्णिसू०-वन्ध और संक्रम इन दोनो अनुयोगद्वारोके विपयमे यह सूत्र-गाथा है ॥ २ ॥
(५) कितनी प्रकृतियोंको वॉधता है, कितनी स्थिति और अनुभागको वॉधता है, तथा कितने जघन्य और उत्कृष्ट परिमाणयुक्त प्रदेशोंको बाँधता है ? कितनी प्रकृतियोंका संक्रमण करता है, कितनी स्थिति और अनुभागका संक्रमण करता है, तथा कितने गुण-हीन या गुण-विशिष्ट जघन्य-उत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रमण करता है ? ॥२३॥