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१९२ कसाय पाहुड सुत्त
[५प्रदेशविभक्ति घेत्तूण वे छावहिसागरोक्माणि सम्मत्तद्धमणुपालिऊण मिच्छत्तं गंतूण णqसयवेदमगुस्सेसु उववण्णो सबचिरं संजममणुपालिण खवेदुमाहत्तो। तदो तेण अपच्छिमड्डिदिखंडयं संछुहमाणं संछुद्धं उदओ णवरिविसेसो तरस चरिमसमयणकुंसयवेदस्स जहण्णयं पदेससंतकम्म । ४८. तदो पदेसुत्तरं। ४९. णिरंतराणि हाणाणि जाव तप्पाओग्गो उकस्सओ उदओ ति । ५०. एदमेगं फदयं । ५१. अपच्छिमस्स द्विदिखंडयस्स चरिमसमयजहष्णपदमादि कादूण जाव उकस्सपदेससंतकम्मं णिरंतराणि हाणाणि । ५२. एवं णबुंसयवेदस्स दो फद्दयाणि । ५३. एवमित्थिवेदस्स, णवरि तिपलिदोवमिएसु णो उववष्णो ।
५४. पुरिसवेदस्स जहण्णयं पदेससंतकम्मं कस्स ? ५५. चरिमसमयपुरिसवेदोदयक्खवगेण घोलमाणजहण्णजोगट्ठाणे वट्टमाणेण जं कम्मं बद्ध तं कम्ममावलियसमयअवेदो संकायेदि । जत्तो पाए संकामेदि तत्तो पाए सो समयपबद्धो आवलियाए अकम्म होदि । तदो एगसमयमोसकिदूण जहण्णयं पदेससंतकम्मट्ठाणं ।
५६. तस्स कारणमिमा परूवणा कायव्या । सम्यक्त्वके कालको अनुपालकर और पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त होकर नपुंसकवेदी मनुष्योमे उत्पन्न हुआ । वहाँ सर्वाधिक चिरकालतक संयमका परिपालनकर कर्मोंका आपण आरम्भ किया । तब उसने संक्रम्यमाण अन्तिम स्थिति-खंडको संक्रान्त किया, अर्थात् नपुंसकवेदकी चरमफालिको सर्वसंक्रमणके द्वारा पुरुपवेदमे संक्रमित किया। उस समय उदयमे इतनी विशेषता है कि एक समयकी कालस्थितिवाले एक निपेकके अवशिष्ट रहनेपर उस चरमसमयवर्ती नपुंसकवेदी जीवके नपुंसकवेदका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है। तदनन्तर प्रदेशोत्तरके क्रमसे तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट उदय प्राप्त होने तक निरन्तर स्थान पाये जाते है, ये स्थान एक स्पर्धक-प्रमाण है । अन्तिम स्थितिखंडके चरमसमयवर्ती जघन्य पदको आदि करके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म तक निरन्तर स्थान पाये जाते है । इस प्रकार नपुंसकवेदके दो स्पर्धक जानना चाहिए । इसी प्रकारसे स्त्रीवेदके जघन्य प्रदेशसत्कर्मका स्वामित्व भी प्ररूपण करना चाहिए । विशेषता केवल यह है कि उसे तीन पल्योपमकी आयुवाले जीवोमे उत्पन्न नहीं कराना चाहिए ॥४५-५३॥
चूर्णिसू०-पुरुपवेदका जघन्य प्रदेशसत्कर्म किसके होता है ? घोटमान अर्थात परिवर्तमान जघन्य योगस्थानमे वर्तमान, चरम समयवर्ती पुरुपवेदोदयी क्षपकने जो कर्म वॉधा है, उस कर्मको वह अपगतवेदी होकर समयाधिक आवलीकालसे संक्रमण प्रारम्भ करता है । जिस स्थलसे वह संक्रमण प्रारम्भ करता है, उस स्थलसे वह समयमबद्ध एक आवलीकालके द्वारा अकर्मस्प होता है । उसमे एक समय नीचे जाकर पुरुपवेदका जघन्य प्रदेशसत्कर्मस्थान होता है ॥ ५४-५५ ॥
चूर्णिम०-इमका कारण जानने के लिए यह वन्यमाण सम्पणा करना चाहिए।॥५६॥