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गा० २२] उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्ति-स्वामित्व-निरूपण
१९७ ९०. जहा कोधसंजलणस्स, तहा माण-मायासंजलणाणं । ९१. लोभसंजलणस्स जहण्णगं पदेससंतकम्मं कस्स ? ९२. अभवसिद्धियपाओग्गेण जहण्णगेण कम्मेण तसकायं गदो तम्मि संजमासंजमं संजमं च बहुवारं लद्धाउओ कसाए ण उवसामिदाउओ । तदो कमेण मणुस्सेसुववण्णो । दीहं संजयद्धमणुपालेदूण कसायक्खवणाए अब्भुद्विदो तस्स चरिमसमयअधापवत्तकरणे जहण्णगं लोभसंजलणस्स पदेससंतकस्म । ९३. एदमादि कादूण जावुक्कस्सयं संतकम्मं णिरंतराणि हाणाणि । ९४. छण्णोकसायाणं जहण्णयं पदेससंत कम्मं कस्स ? ९५. अभवसिद्धियपाओग्गेण जहण्णएण कम्मेण तसेसु आगदो । तत्थ संजमासंजमं संजमं च बहुसो लद्धो । चत्तारि वारं कसाए उवसामेदृण तदो कमेण मणुसो जादो। तत्थ दीहं संजमद्धं कादूण खवणाए अव्भुट्टिदो। तस्स चरिमसमयडिदिखंडए चरियसमयअणिल्लेविदे छण्हं कम्मंसाणं जहण्णयं पदेससंतकम्मं । ९६. तदादियं जाव उक्कस्सियादो एगमेव फद्दयं ।
चूर्णिसू०-जिस प्रकारसे संज्वलनक्रोधके प्रदेशसत्कर्मस्थानोकी प्ररूपणा की है, उसी प्रकारसे संज्वलनमान और संज्वलनमायाके प्रदेशसत्कर्मस्थानोकी प्ररूपणा करना चाहिए। संज्वलनलोभका जघन्यप्रदेश सत्कर्म किसके होता है ? जो जीव अभव्यसिद्धोके योग्य जघन्य सत्कर्मके साथ उसकायको प्राप्त हुआ। वहॉपर उसने बहुत वार संयमासंयम और संयमको धारण किया किन्तु कपायोको उपगमित नहीं किया । पुनः एकेन्द्रियादिकोमे परिभ्रमण कर क्रमसे मनुष्योमे उत्पन्न हुआ। वहाँ दीर्घकाल तक संयमका परिपालन कर कपायोकी आपणाके लिए उद्यत हुआ । उसके अधःप्रवृत्तकरणके चरम समयमे संज्वलन लोभका जघन्यप्रदेश सत्कर्म होता है । इस जघन्य प्रदेशसत्कर्मस्थानको आदि लेकर उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थान प्राप्त होने तक निरन्तर प्रदेशसत्कर्मस्थान पाये जाने है ॥ ९०-९३ ॥
चूर्णिसू०-हास्यादि छह कपायोका जघन्य प्रदेशसत्कर्म किसके होता है ? जो जीव अभव्यसिद्धोके योग्य जघन्यसत्कर्मके साथ सोमे उत्पन्न हुआ। वहॉपर संयमासंयम और संयमको बहुत वार प्राप्त किया और चार वार कपायोका उपशमन कर एकेन्द्रियोम उत्पन्न हुआ । पुनः क्रमसे मनुष्य हुआ और वहॉपर दीर्घकाल तक संयमका परिपालन कर क्षपणाके लिए उद्यत हुआ । तव चरम स्थितिकांडकके चरम समयमे अनिर्लेपित रहनेपर हाम्यादि छह नोकपायोका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है । उस जघन्यप्रदेशसत्कर्मस्थानको आदि लेकर उत्कृष्टप्रदेशसत्कर्मस्थान तक एक ही स्पर्धक होता है ।। ५४-९६ ॥
१ अंतिमलोभ-जसाणं मोहं अणुवसमइत्त खीणाणं ।
नेयं अहापवत्तकरणस्स चरमम्मि समयम्मि ॥ ४१ ॥ (चू०)xx लोभसजलण-जसकित्तीण xx चरित्तमोहणिज्ज अणुवसमित्त सेरिगाहि खविपरम्मसिगकिरियाहि 'खीणाण' त्ति-योगीकवाण दलियाण चरित्तमोर उवमागितत्स बहुगा पोग्गला गुणसकमेण लभति तम्हा सेढिवज्जण इच्छिज्जति । ४४ अहापवत्तकरणत्स चरिमसमये च वट्टमाणन्स लोममंजलजसाण जहण्णग पदेससत भवति, परओ दलिय तु गुणमकमेण वासि नि काउ। कम्म सत्ता पृ०६५.