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१९६ कसाय पाहुड सुत्त
[५ प्रदेशविभक्ति ८१. कोधसंजलणस्स जहण्णयं पदेससंतकम्म कस्स ? ८२. चरिमसमयकोधवेदगेण खवगेण जहण्णजोगट्टाणे जं बद्ध तं जं वेलं चरिमसमयअणिल्लेविदं तस्स जहण्णयं संतकम्मं । ८३. जहा पुरिसवेदस्स दोआवलियाहि दुसमऊणाहि जोगट्ठाणाणि पदुप्पण्णाणि एवदियाणि संतकम्महाणाणि सांतराणि । एवं आवलियाए समऊणाए जोगट्ठाणाणि पदुप्पण्णाणि एत्तियाणि कोधसंजलणस्स सांतराणि संतकम्मट्ठाणाणि । ८४. कोधसंजलणस्स उदए वोच्छिण्णे जा पढमावलिया तत्थ गुणसेही पविल्लिया । ८५. तिस्से आवलियाए चरिमसमए एगं फयं । ८६. दुचरिमसमए अण्णं फद्दयं । ८७. एवमावलियसमयूणमेत्ताणि फयाणि । ८८. चरिमसमयकोधवेदयस्स खवयस्स चरिमसमयअणिल्लेविदं खंडयं होदि । ८९. तस्स जहण्णसंतकम्ममादि कादण जाव ओघुकस्सं कोधसंजलणस्स संतकम्मं ति एदमेगं फद्दयं । द्रव्यको एक एक प्रदेश अधिकके क्रमसे तब तक बढ़ाते जाना चाहिए जब तक कि वह जीव उस दूसरे जीवके समान न हो जावे जो द्वितीय योगस्थान और जघन्य प्रकृत-गोपुच्छाके साथ स्थित है। इसी प्रकार इस दूसरे जीवकी प्रकृत-गोपुच्छाके द्रव्यको एक एक प्रदेश अधिकके क्रमसे तव तक बढ़ाना चाहिए, जब तक कि वह दूसरा जीव उस तीसरे जीवके समान न हो जावे, जो तृतीय योगस्थान और जघन्य प्रकृत-गोपुच्छाके साथ अवस्थित है। इस प्रकार नाना जीवोंके आश्रयसे जघन्य योगस्थानसे लेकर उत्कृष्ट योगस्थान तक निरन्तर प्रदेशसत्कर्मस्थान उत्पन्न कराना चाहिए । इस ही प्रकार द्विचरम, त्रिचरम आदि सवेदी जीवोके पृथक्-पृथक् एक एक स्पर्धकका कयन करना चाहिए। यहॉपर संक्रमणकालीके अन्तर्गत प्रकृत-गोपुच्छाके आश्रयसे एक एक समयमे निरन्तर प्रदेशसत्कर्मस्थानोकी उत्पत्ति कही गई है, अतः ये प्रदेशसत्कर्मस्थान दूसरे वीजपदके निमित्तसे उत्पन्न हुए है।
चूर्णि सू०-संज्वलनक्रोधका जघन्य प्रदेशसत्कर्म किसके होता है ? चरमसमयवर्ती क्रोध-वेदक क्षपकने जघन्य योगस्थानमे स्थित होकर जो कर्म वॉधा और जिस समय वह चरम समयमें अनिलेपित है, उस समय उस जीवके संज्वलनक्रोधका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है । जिस प्रकार पुरुपवेदके दो समय कम दो आवलियोसे योगस्थान उत्पन्न किये गये है, उतने ही पुरुपवेदके सान्तर सत्कर्मस्थान होते है । इसी प्रकार एक समय कम
आवलीके द्वारा जितने योगस्थान उत्पन्न होते है, उतने ही संज्वलनक्रोधके सान्तर सत्कर्मस्थान होते हैं । संज्वलनक्रोधके उदयके व्युच्छिन्न होनेपर जो प्रथमावली है उसमे गुणश्रेणी प्रविष्ट होती है । उस आवलीके चरम समयमे एक स्पर्धक होता है, द्विचरमसमयमे अन्य स्पर्धक होता है । इस प्रकार एक समय कम आवली-प्रमाण स्पर्धक होते हैं। चरमसमयवर्ती क्रोधवेदक क्षपकके चरम समयमै अनिर्लेपित चरमस्थितिकांडक होता है । उस चरमसमयवर्ती क्रोधवेदक क्ष्पकके जघन्य सत्कर्मसे लेकर संज्वलनक्रोधके ओध-उत्कृष्ट सत्कर्म तक एक म्पर्धक होता है। ॥ ८१-८९ ॥