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फसाय पाहुड सुत्त [७ स्थितिक-अधिकार पत्तयं । ६. णिसेयहिदिपत्तयं णाम किं ? ७. जंकम्म जिस्से द्विदीए णिसित्तं ओकड्डिदं वा उक्कड्डिदं वा तिस्से चेव द्विदीए उदए दिस्सइ, तं णिसेयद्विदिपत्तयं । ८. अधाणिसेयहिदिपत्तयं णाम किं १ ९. जं कम्मं जिस्से द्विदीए णिसित्तं अणोकड्डिदं अणुक्कड्डिदं तिस्से चेव हिदीए उदए दिस्सइ तमधाणिसेयढिदिपत्तयं । १०. उदयट्ठिदिपत्तयं णाम किं ? ११. जं कम्मं उदए जत्थ वा तत्थ वा दिस्सइ तमुदयट्टिदिपत्तयं । १२. एदयपदं* । १३. एत्तो एकेकढिदिपत्तयं चउचिहमुक्कस्समणुक्कस्सं जहण्णमजहण्णं च ।
१४. सामित्तं । १५. मिच्छत्तस्स उक्कस्सयमग्गहिदिपत्तयं कस्स ? १६. अग्गद्विदिपत्तयमेको वा दो वा पदेसा एवमेगादि-एगुत्तरियाए बड्डीए जाव ताव उक्क
शंका-निपेकस्थितिप्राप्तक नाम किसका है १ ॥ ६ ॥
समाधान-जो कर्म-प्रदेशाग्र बँधनेके समयमे ही जिस स्थितिमें निपिक्त कर दिये गये, अथवा अपवर्तित कर दिये गये, वे उस ही स्थितिमे होकर यदि उदयमे दिखाई देते हैं, तो उन्हे निषेकस्थितिप्राप्तक कहते है ।। ७ ।।
शंका-यथानिषेकस्थितिप्राप्तक किसे कहते हैं ? ॥ ८ ॥
समाधान-जो कर्म-प्रदेशाग्र वन्धके समय जिस स्थितिमे निपिक्त कर दिये गये, वे अपवर्तना या उद्वर्तनाको प्राप्त न होकर सत्ताले तदवस्थ रहते हुए ही यथाक्रमसे उस ही स्थितिमें होकर उदयमे दिखाई दे, उसे यथानिपेकस्थितिप्राप्तक कहते है ।। ९ ।।
शंका-उदयस्थितिप्राप्तक किसे कहते है ? ॥१०॥
समाधान-जो कर्म-प्रदेशाग्र बंधनेके अनन्तर जहाँ कहीं भी जिस किसी स्थितिमे होकर उदयको प्राप्त होता है, उसे उदयस्थितिप्राप्तक कहते हैं ।।११।।
चूर्णिसू०-उत्कृष्टस्थितिप्राप्तक आदि चारो ही भेदोके अर्थका निर्णय करानेवाला यह उपयुक्त अर्थपद है । मोहप्रकृतियोके ये एक-एक अर्थात् चारो ही प्रकारके स्थितिप्राप्तक, उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्यके भेदसे चार-चार प्रकारके होते हैं ।।१२-१३।।
चूर्णिसू०-अब उत्कृष्ट स्थितिप्राप्तक आदिके स्वामित्वको कहते है ।।१४।। शंका-मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अग्रस्थितिप्राप्तक किसके होता है ? ॥१५॥
समाधान-अग्रस्थितिको प्राप्त एक प्रदेश भी पाया जाता है, दो प्रदेश भी पाये जाते है, तीन प्रदेश भी पाये जाते हैं, इस प्रकार एक-एक प्रदेशको उत्तर वृद्धिसे तबतक
१. कधं जहाणिसेयस अघाणिसेयववएसो त्ति ण पञ्चवठ्य, 'वच्चति क ग त द य वा, अत्य वहंति सरा' इदि यकारत्स लोव काऊण णिद्देसादो । जयध० ।
ताम्रपत्रवाली प्रतिमें यह सूत्र इस प्रकार मुद्रित है-'एदमपदं उक्स्सटिदिपत्तयादीण चउण्ह पि अत्यविसयणिण्णयणियधं'। पर 'अछपद' से आगेका अश तो उसके ही अर्थकी व्याल्यात्मक टीफाका अंग है, उसे सूत्रका अंग बनाना ठीक नहीं । (देखो पृ० ९२३)