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गा० २२]
उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्ति-स्वामित्व-निरूपण
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मच्छिद्रण कम्मं हदसमुप्पत्तियं काढूण कालं गदो तसेसु आगदो कसाए खवेदि अपच्छिमे ट्ठिदिखंडए अवगदे अधडिदिगलणाए उदयावलियाए गलतीए एकिस्से हिदीए सेसाए तम्म जहण्यं पदं । ४० तदो पदेसुत्तरं । ४१. निरंतराणि द्वाणाणि जाव एडिदिविसेसस्स उकस्सपदं । ४२. एदमेगं फद्दयं । ४३. एदेण कमेण अट्टहं पि कसायाणं समयूणावलियमेत्ताणि फद्दयाणि उद्यावलियादो । ४४. अपच्छिमडिदिखंडयस्स चरिमसमयजहण्णपदमादि काढूण जावुक्कस्तपदेस संतकम्मं ति एदमेगं फद्दयं ।
४५. अताणुबंधी मिच्छत्तभंगो' । ४६. णवंसयवेदस्त जहण्णयं पदेससंतकम्मं कस्स १४७. तधा चेव अभवसिद्धियपाओग्गेण जहण्णेण संतकम्मेण तसेसु आगदो संजमा संजमं संजम सम्मत्तं च बहुसो लद्वण चत्तारि वारे कसाए उवसामिदूण तदो तिपलिदोवमिसु उववण्णो । तत्थ अंतोमुहुत्तावसेसे जीविदव्वए त्ति सम्मत्तं और कर्मको हतसमुत्पत्तिक करके मरणको प्राप्त हो, सोमें आकर मनुष्य होकर कपायोका क्षय करता है, उसके अन्तिम स्थिति-खंडके अधः स्थितिगलनाके द्वारा गल जानेपर तथा गलती हुई उदयावलीमे एक स्थितिके शेष रहनेपर आठों कपायोका जघन्य प्रदेश सत्कर्म होता है । उसके आगे प्रदेशोत्तरके क्रमसे तब तक निरन्तर स्थान पाये जाते है, जब तक कि एक स्थितिविशेषका उत्कृष्ट पद प्राप्त होता है । ये स्थान एक स्पर्धकप्रमाण है । क्योंकि यहाॅ अन्तर नहीं पाया जाता । इस ही क्रमसे आठो ही कपायोके उदद्यावली से लेकर एक समय कम आवलीमात्र स्पर्धक जानना चाहिए | अन्तिम स्थितिकांडकके चरमसमयके जघन्य पदको आदि लेकरके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म प्राप्त होने तक निरन्तर स्थानोका प्रमाण एक स्पर्धक है ॥ ३८-४४ ॥
चूर्णिसू० - अनन्तानुचन्धी कपायोके जघन्य स्वामित्व की प्ररूपणा मिथ्यात्वके जघन्य स्वामित्वके समान जानना चाहिए । नपुंसकवेदका नघन्यप्रदेशसत्कर्म किसके होता है ? जो जीव उसी प्रकार से एकेन्द्रियोमे अभव्यसिद्धिकोके योग्य जघन्य सत्कर्मको करके उसके साथ नसोंमें आया और संयमासंयम, संयम तथा सम्यक्त्वको अनेक वार प्राप्तकर, और चार वार कपायोका उपशम कर तत्पश्चात् तीन पल्यकी आयुवाले जीवोमे उत्पन्न हुआ। वहाँ पर जीवनके अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अवशेष रहनेपर सम्यक्त्वको ग्रहणकर दो वार छयासठ सागरोपमप्रमाण
ताम्र-पत्रवाली प्रतिमे यह सूत्र नहीं हैं, पर होना चाहिए, क्योंकि इसकी 'टीका एदमेग पडुयमेत्थ अतराभावादी' इस रूपसे पाई जाती है। आगे भी नपु सकवेदके जघन्य प्रदेश सत्कर्म बतलाते हुए यही सूत्र दिया गया है | ( देखो सूत्र न० ५० )
१ खणसंजोइय संजोयणाण चिरसम्मकालंते ॥ ३९ ॥
( ० ) xx सवियकम्मसिगो सम्मद्दिट्ठी अणताणुबंधिणो विसजोजेत्तु पुणो मिच्छत्त गनू अतो मुहुत्त अणताणुवधी वधित्त पुणो सम्मत्त पडिवो 'चिरसम्मकारते' ति-वे छावटठीतो सम्मत्त अणुपालेत्तु, खवणाए अन्भुट्टियस्स एट्टितिसेसे वट्टमाणस्स समालट्ठतीय पहन अपनावी पदेस संत भवति । कम्म० सत्ता० ० ३९, चू० पृ० ६२.