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१९० कसाय पाहुड सुत्त
[५प्रदेशविभक्ति णिगोदेसु कम्मद्विदिमच्छिद्ण तदो तसेसु संजमासंजमं संजमं सम्मत्तं च बहुसो लघृण चत्तारि वारे कसाए उवसामेदूण वे छावहिसागरोवमाणि सम्मत्तमणुपालेदूण मिच्छत्तं गढो दीहाए उव्वेलणद्धाए उव्वेलिदं तस्स जाधे सव्वं उव्वेलिदं उदयावलिया गलिदा, जाधे दुसमयकालट्ठिदियं एकम्मि हिदिविसेसे सेसं, ताधे सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णं पदेससंतकम्म । ३३. तदो पदेसुत्तरं । ३४. दुपदेसुत्तरं ३५. णिरंतराणि हाणाणि उक्कस्सपदेससंतकम्मं ति । ३६. एवं चेव सम्मत्तस्स वि । ३७. दोण्हं पि एदेसि संतकम्माणमेगं फयं ।
३८. अहण्हं कसायाणं जहण्णयं पदेससंतकम्मं कस्स ? ३९. अभवसिद्धियपाओग्गजहण्णयं काऊण तसेसु आगदो संजमासंजमं संजमं सम्मत्तं च बहुसो लघृण चत्तारि वारे कसाए उवसामिण एइदियं गदो । तत्थ पलिदोवमस्स असंखेजदिभागसम्यक्त्वको अनेक वार प्राप्त कर, तथा चार वार कपायोका उपशमन करके दो वार छयासठ सागरोपम कालतक सम्यक्त्वको परिपालन कर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। वहॉपर दीर्घ उद्वेलनकालके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वका उद्वेलन किया, उसका जब सर्वद्रव्य उद्वेलन कर दिया गया और उदयावली भी गल गई, तथा जब एक स्थितिविशेषमे दो समयप्रमाण कालकी स्थितिवाला द्रव्य शेष रहा, तब उस जीवके सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेश सत्कर्म पाया जाता है । तदनन्तर प्रदेशोत्तरके क्रमसे अर्थात् जघन्य स्थानके ऊपर उत्कर्पण-अपकर्पणके द्वारा एक प्रदेशके बढ़नेपर सम्यग्मिथ्यात्वके प्रदेशसत्कर्मका द्वितीय स्थान होता है । पुनः द्विप्रदेशोत्तरके क्रमसे अर्थात् जघन्य द्रव्यके ऊपर उत्कर्षण-अपकर्पणके वशसे दो कर्मपरमाणुओके बढ़नेपर प्रदेशसत्कर्मका तीसरा स्थान होता है। इस प्रकार एक एक प्रदेश अधिकके क्रमसे निरन्तर बढ़ते हुए स्थान उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मरूप स्थान तक पाये जाते है । जिस प्रकारसे सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्यस्थानसे लेकर उत्कृष्ट स्थान तक स्वामित्वका निरूपण किया है, उसी प्रकारसे सम्यक्त्वप्रकृतिके स्वामित्वका निरूपण करना चाहिए । इन दोनो ही प्रकृतियोके सत्कर्मोंका एक स्पर्धक होता है, क्योकि जघन्य सत्कर्मसे लेकर प्रदेशोत्तर, द्विप्रदेशोत्तरके क्रमसे निरन्तर वृद्धिंगत स्थान उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थान तक पाये जाते है ।। ३१-३७॥
___ चूर्णिसू०-आठ मध्यम कषायोका जघन्य प्रदेशसत्कर्म किसके होता है ? जो एकेन्द्रिय जीवोमें अभव्यसिद्धिकोंके योग्य जघन्य द्रव्यको करके त्रसजीवोमे आया और संयमासंयम, संयम तथा सम्यक्त्वको अनेक वार प्राप्तकर और चार वार कपायोका उपगमन कर एकेन्द्रियोमे उत्पन्न हुआ। वहॉपर पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण काल तक रह करके १ उन्चलमाणीण उचलणा एगट्टिई दुसामइगा। दिट्टिदुगे वत्तीसे उदहिसए पालिए पच्छा॥४०॥
(चू०)xxx सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताण वे छावटीओ सागरोवमाण सम्मत्त अणुपालेत्तु पच्छा मिच्छत्त गतो चिरउव्वलणाए अप्पप्पणो उबल्लणाए आवलिगाए उवरिम छितिखडग सकममाणं सकतं उदयावलिया खिजति जाव एगठितिसेसे दुसमयकालछितिगे जहन्न पदेससतं । कम्म० सत्ता० पृ० ६४.