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गा० २२] उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्ति-स्वामित्व-निरूपण
१९३ ५७. पढमसमयअवेदगस्स केत्तिया समयपबद्धा ? ५८. दो आवलियाओ दुसमऊणाओ। ५९. केण कारणेण । ६०. जं चरिमसमयसवेदेण बद्धतमवेदस्स विदियाए आवलियाए तिचरिमसमयादो त्ति दिस्सदि, दुचरिमसमए अकम्मं होदि । ६१. जं दुचरिमसमयसवेदेण बद्ध तमवेदस्स विदियाए आवलियाए चदुचरिमसमयादो त्ति दिस्सदि । ६२. ऋतिचरिमसमए अकम्मं होदि । ६३ एदेण कमेण चरिमावलियाए परमसमयसवेदेण जं बद्ध तमवेदस्स पढमावलियाए चरिमसमए अकम्मं होदि । ६४. जं सवेदस्स दुचरिमाए आवलियाए पहमसमए पबद्ध तं चरिमसमयसवेदस्स अकम्म होदि । ६५. जं तिस्से चेव दुचरिमसवेदावलियाए विदियसमए वद्ध तं पढमसमयअवेदस्स अकम्मं होदि । ६६. एदेण कारणेण वे समयपबद्ध ण लहदि । ६७. सवेदस्स दुचरिमावलियाए दुसमयूणाए चरिमावलियाए सव्वे च एदे समयपबद्ध अवेदो लहदि । ६८. एसा ताव एका परूवणा ।
शंकाचू०-प्रथमसमयवर्ती अवेदकके कितने समयप्रवद्ध होते है ? ॥ ५७ ॥
समाधानचू०-दो समय कम दो आवलियोके जितने समय होते है, उतने समयप्रवद्ध होते है ॥ ५८ ॥
शंकाचू०-किस कारणसे दो समय कम किये गये है ? ॥ ५९ ॥
समाधानचू०-चरमसमयवर्ती सवेदी क्षपकने जो कर्म बाँधा है, वह अवेदी आपककी दूसरी आवलीके त्रिचरमसमय-पर्यन्त दिखाई देता है और द्विचरम समयमे अकर्मरूप हो जाता है । द्विचरमसमयवर्ती सवेदी क्षपकने जो कर्म बाँधा है, वह अवेदी क्षपककी दूसरी आवलीके चतुःचरमसमय-पर्यन्त दिखाई देता है और त्रिचरमसमयमे अकर्मरूप हो जाता है। इस क्रमसे चरम-आवलीके प्रथमसमयवर्ती क्षपकने जो कर्म बॉधा है, वह अवेदी क्षपककी प्रथमावलीके अन्तिम समयमे अकर्मरूप हो जाता है। जो कर्म सवेदी क्षपकने द्विचरमावलीके प्रथम समयमे बाँधा है, वह चरमसमयवर्ती सर्वदी आपकके अकर्मरूप हो जाता है । जो कर्म उस ही द्विचरम-सवेदावलीके द्वितीय समयमे बाँधा है, वह प्रथमसमयवर्ती अवेदीके अकर्मरूप हो जाता है । इस कारणसे द्विचरम-सर्वदावलीके प्रथम
और द्वितीय समयमे बँधे हुए दो समयप्रवद्ध प्रथमसमयवर्ती अवेदी क्षपकके नहीं पाये जाते है । अतः दो समय कम दो आवलीप्रमाण समयप्रवद्ध ही प्रथमसमयवर्ती अवेदकके पाये जाते है ॥ ६०-६७ ।।
चूर्णिम् ०-इस प्रकार यह एक प्ररूपणा जघन्य द्रव्यका प्रमाण जाननेके लिए तथा अपगतवेदी क्षपकके पाये जानेवाले सत्कर्मस्थानोका कारण बतलाने के लिए की गई है।।६८॥
ताम्रपत्रवाली प्रतिमे इसे ६१वे सूत्र के अन्तमे कोटक्के अन्तर्गत करके दिया है। पर इसका स्थान टीकाके 'सकमपारभादो के अनन्तर है, जिसे कि टीका नमझ लिया गया है। बद्धममनादो से आगे. वा अगदमी सूत्रको टीका है, अतएव इने पृथक सत्र ही होना चाहिए । (देखो पृ० ७४७)