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कसाय पाहुड सुत्त
एवं 'तह ट्ठिदीए' त्ति जं पदं तस्स अत्थपरूवणा कदा |
ठिदिविहत्ती समत्ता |
कहते है' । वह इस प्रकार है- अनन्तानुबन्धी आदि सोलह कपाय, भय और जुगुप्सा, इन प्रकृतियो के स्थितिसत्कर्मस्थान आगे कहे जानेवाले सर्वस्थानोकी अपेक्षा सवसे कम है । सोलह कषाय और भय - जुगुप्सा के स्थितिसत्कर्मस्थानोसे नपुंसकवेदके स्थितिसत्कर्मस्थान विशेष अधिक है । नपुंसक वेद के स्थितिसत्कर्मस्थानोसे अरति और शोक प्रकृतिके स्थितिसत्कर्मस्थान विशेप अधिक है । अरति शोकके स्थितिसत्कर्मस्थानो से हास्य और रति प्रकृतिके स्थितिसत्कर्मस्थान विशेष अधिक है । हास्य- रतिके स्थितिसत्कर्मस्थानो से स्त्रीवेदके स्थितिसत्कर्मस्थान विशेष अधिक है | स्त्रीवेदके स्थितिसत्कर्मस्थानोसे पुरुषवेद के स्थितिसत्कर्मस्थान विशेष अधिक है । इसी प्रकार सर्व मार्गणाओमे आगमके अनुसार अल्पबहुत्व जान लेना चाहिए |
इस प्रकार चौथी मूलगाथा के 'तह हिदीए' इस पद के अर्थ की प्ररूपणा की गई । इस प्रकार स्थितिविभक्ति समाप्त हुई ।
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[ ३ स्थितिविभक्ति
१ सपद्दि पडिवक्खवधगढाओ अस्सिदूण अभव्वसिद्धियपाओगट्ठाणाणमप्पाचहुअ वत्तइस्लामो । त जहा — सव्वत्थोवाणि सोल्सक साय-भय-दुगुछाण ट्रिट्ठदिसतकम्मट्ठाणाणि । णवुसयवेद ट्रिट्ठदिसतकम्मट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । अरदि-सोगट्रिटदिसंतकम्मट टाणाणि विसेसाहियाणि । इस्स रदीण ट्रिटदिसतकम्मट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । इत्थिवेटस्तकम्मट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । पुरिसवेदसतकम्मरठाणाणि विसेसाहियाणि । एदमप्पाचहुअ सव्वमग्गणासु जाणिदूण जोजेयत्वं । जयध०