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कसाय पाहुड सुन्त
[ ४ अनुभागविभक्ति
देनेकी मुख्यता या हीनाधिक तारतम्यता से निषेक दो प्रकार के होते है - सर्वघाती और देशघाती । यद्यपि सर्वघाती और देशघातीका भेद घातिया कर्मोंमे ही संभव है, तथापि अघातिया कर्मोंके अनुभागको घातिया कर्मोंसे प्रतिवद्ध मानकर उक्त दो भेद किये गये है, क्योकि अघातिया कर्म भी जीवके ऊर्ध्वगमनत्व आदि प्रतिजीवी गुणोके घातक होनेसे घातिकर्म - प्रतिवद्ध ही हैं । अघातिया कर्मोंको 'अघाती' संज्ञा देनेका कारण केवल इतना ही है कि वे जीवके अनुजीवी गुणोका अंशमात्र भी घात करनेमे असमर्थ है । निपेकप्ररूपणाने इस प्रकार से कर्मोके देशघाती और सर्वघाती निपेकोका विचार किया गया है । स्पर्धकप्ररूपणा मे अनुभागकी मुख्यता से कर्मों के स्पर्धकोका विचार किया गया है । कर्मोंके अनुभागसम्बन्धी सर्व- जघन्य शक्त्यंगको अविभागप्रतिच्छेद कहते है । अनन्तानन्त अविभागप्रतिच्छेदो के समुदायको वर्ग कहते हैं । अनन्तानन्त वर्गाके समुदायको वर्गणा कहते हैं और अनन्तानन्त वर्गणाओ - के समुदायको स्पर्धक कहते है | अनुभागविभक्तिके जानने के लिए निपेकप्ररूपणा और स्पर्धकप्ररूपणाको अर्थपद माना गया है । इस अर्थपदके द्वारा महावन्धके रचयिता भगवन्त भूतवलिने जिन चौवीस अनुयोगद्वारोसे कर्मोंके अनुभागबन्धका विस्तृत विवेचन किया है, उन्ही अनुयोगद्वारोमे बन्धके स्थानपर 'विभक्ति' पद जोड़कर उच्चारणाचार्यने अनुभागविभक्तिका व्याख्यान किया है । प्रस्तुत ग्रन्थमे केवल एक मोहकर्म ही विवक्षित है, अत: एकमे सन्निकर्षं संभव न होनेसे उन्होने उसे छोड़कर शेप तेईस अनुयोगद्वारोसे अनुभागविभक्तिका निरूपण किया है । यतः महावन्धमे अनुभागका विचार बहुत विस्तारसे किया गया है, अतः पिष्ट-पेपण न हो, इस विचार से चूर्णिकार ने उन्हें न लिखकर व्याख्यानाचार्य या उच्चारणाचार्योंको इस सूत्र के द्वारा केवल सूचना मात्र कर दी है कि वे तदनुसार उच्चारण कराकर जिज्ञासु शिष्योको उनका वोध करावें ।
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'मूलप्रकृतिअनुभागविभक्तिके विषय में जो तेईस अनुयोगद्वार जानने योग्य हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं- -१ संज्ञा, २ सर्वानुभागविभक्ति ३ नोसर्वानुभागविभक्ति, ४ उत्कृष्ट- अनुभागविभक्ति, ५ अनुत्कृष्ट- अनुभागविभक्ति, ६ जघन्य - अनुभागविभक्ति, ७ अजधन्य- अनुभागविभक्ति, ८ सादि - अनुभागविभक्ति, ९ अनादि - अनुभागविभक्ति, १० ध्रुव-अनुभागविभक्ति, ११ अध्रुव- अनुभागविभक्ति, १२ एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, १३ काल,
अणताणताण वग्गणाण समुद्रयसमागमेण एगो फहयो भवदि । x x x एद्देण अनुपदेण तत्थ इमाणि चदुवोस अणियोगद्वाराणि णादव्वाणि भवति । त जहा सण्णा सच्वबधो गोसव्वधो उत्सवधो अणुवस्सवघो जहण्णवधो अनण्णवधो सादिवधी अणादिवधो वववधो अद्भुववधा एव याव अप्पाहुति । भुजगारवधो पदणिक्खेवो वह्निबधो अज्झवसाणसमुदाहारो जीवसमुदाहारो त्ति | ( महाव० )
तत्थ इमाणि तेवीम १ सपरि एटस्स सुत्तस्म उच्चारणाइरियकयवक्खाण वत्तस्यामो | अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवति । न जहा - सण्णा सव्वाणुभागविहत्ती गोसव्वाणुभागविहत्ती उकत्साभागवित्ती अणुत्साणुभागविहत्ती जहणाणुभागविद्दत्ती अजहष्णाणुभागविती सादियअणुभागवित्ती अणादिअणुभागविद्दत्ती धुवाणुभागविहत्ती अधुवाणुभागविहत्ती एगजीवेण सामित्तं कालले अतरं गाणाजीवेहि