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पदेसविहत्ती १. पदेसविहत्ती दुविहा-मूलपयडिपदेसविहत्ती उत्तरपयडिपदेसविहत्ती च । २. तत्थ मूलपयडिपदेसवित्तीए गदाए ।
प्रदेशविभक्ति अब अनुभागविभक्तिकी प्ररूपणाके पश्चात् प्रदेशविभक्ति कही जाती है । कर्म-पिडके भीतर जितने परमाणु होते हैं, वे प्रदेश कहलाते है। उन प्रदेशीका भेद या विस्तारसे जिस अधिकारमे वर्णन किया जाय, उसे प्रदेशविभक्ति कहते है।
__ चूर्णिसू०-वह प्रदेशविभक्ति दो प्रकार की है-मूलप्रकृतिप्रदेशविभक्ति और उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्ति । उनमेसे मूलप्रकृतिप्रदेशविभक्तिका विवक्षित अनुयोगद्वारोसे वर्णन करना चाहिए ॥१२॥
विशेषार्थ-चूर्णिकारने मूलप्रकृतिप्रदेशविभक्तिका कुछ भी वर्णन न करके केवल उसके जाननेकी या उच्चारणाचार्योको प्ररूपण करनेकी सूचनामात्र करदी है । इसका कारण यह ज्ञात होता है कि यतः महावन्धमे चौबीस अनुयोगद्वारोसे मूलप्रकृतिप्रदेशविभक्तिका विस्तारसे विवेचन किया गया है, अतः उसका यहाँ वर्णन पिष्ट-पेपण या पुनरुक्ति-दृपण होगा। ऐसा समझकर उन्होने उसके जाननेकी केवल सूचना-भर कर दी है। महावन्धर्म इसका वर्णन चौवीस अनुयोगद्वारोसे किया है। किन्तु उच्चारणाचार्यने वाईस अनुयोगद्वारोसे ही इसका वर्णन किया है । इसका कारण यह है कि महावन्धमे आठो कर्मोके प्रदेशबन्धका वर्णन है, अतः उनमे स्थानसंज्ञा और सन्निकर्पका होना संभव है। किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थमे कंवल मोहकर्म ही विवक्षित है, अतः उसमे उक्त दोनो अनुयोगद्वार संभव नहीं है। उचारणाचार्यक द्वारा कहे गये वे बाईस अनुयोगद्वार इस प्रकार है- १ भागाभागानुगम, २ सर्वप्रदेशविभक्ति, ३ नोसर्वप्रदेशविभक्ति, ४ उत्कृष्टप्रदेशविभक्ति, ५ अनुत्कृष्टप्रदेशविभक्ति. ६ जघन्यप्रदेशविभक्ति, ७ अजवन्यप्रदेशविभक्ति, ८ सादिप्रदेशविभक्ति, ९ अनादिप्रदेशविभक्तिः, १० ध्रुवप्रदेशविभक्ति, ११ अध्रुवप्रदेशविभक्ति, १२ एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, १३ काल, १४
१ मूलपयडिपदेसविहत्तीए परूविदाए पच्छा उत्तरपयटिपदेसविहत्ती परूविव्या त्ति एदेण वयणेण जाणाविद । तेणेद देसामासियसुत्त । एदस्म विवरणह परूविदउच्चारणमेव भाणलामो पदेनविहत्ती दविहामलपयडिपदेसविहत्ती उत्तरपयडिपदेसविहत्ती चेव । मृलपपडिविहत्तीए तत्थ माणि वावीन अनुयोगदाराणि गाव्याणि भवति । त जटा-भागाभाग १, मध्यपदेसविहत्ती २, गोराब्वपदेसविहती '५, जनरदेविदत्ती ६. अजहणपदेमविहत्ती ७, सादियपदेसविहत्ती ८, अणादियपदेसबिहनी ९, युवपदे-विरती १०. अन्य देम विरत्ती ११, एगजीवेण मागित्त १२, कालो , अतर । ४. गाणाजीवेहि नगरियो । परि १०.