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गा० २२] स्थितिविभक्ति-अल्पवहुत्व-निरूपण
१४१ सिया असंखेज्जगुणा । ३६५. असंखेज्जभागवड्डिकम्मंसिया असंखेज्जगुणा । ३६६. असंखेज्जगुणवड्डिकम्मंसिया असंखेज्जगुणा । ३६७. संखेजगुणवड्डिकम्मंसिया असंखेज्जगुणा । ३६८. संखेज्जभागवडिकम्मंसिया संखेज्जगुणा । ३६९. संखेज्जगुणहाणिकम्मंसिया संखेज्जगुणा । ३७०. संखेज्जभागहाणिकम्मंसिया संखेज्जगुणा । ३७१. अवत्तव्बकम्मंसिया असंखेज्जगुणा । ३७२. असंखेज्जभागहाणिकम्मंसिया असंखेज्जगुणा । ३७३. अणंताणुबंधीणं सव्वत्थोवा अवत्तव्यकम्मंसिया । ३७४. असंखेज्जगुणहाणिकस्मंसिया संखेज्जगुणा । ३७५. सेसाणि पदाणि मिच्छत्तभंगो।
३७६. हिदिसंतकम्मट्ठाणाणं परूवणा अप्पार हुग्रं च । ३७७. परूवणा । ३७८. मिच्छत्तस्स द्विदिसंतकम्मट्ठाणाणि उक्कस्सियं हिदिमादि कादूण जाव एइंदियपाओग्गकम्म जहष्णयं ताव णिरंतराणि अस्थि । जीवोसे अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणित है। अवस्थितस्थितिविभक्तिवाले जीवोसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव असंख्यातगुणित है। असंख्यातभागवृद्धिवाले जीवोसे असंख्यातगुणवृद्धिवाले जीव असंख्यातगुणित हैं। असंख्यातगुणवृद्धिवाले जीवोसे संख्यातगुणवृद्धिवाले जीव असंख्यातगुणित है । संख्यातगुणवृद्धिवाले जीवोसे संख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणित है। संख्यात भागवृद्धिवालोसे संख्यातगुणहानिवाले जीव संख्यातगुणित है। संख्यातगुणहानिवालोसे संख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातगुणित हैं। संख्यातभागहानिवालोसे अवक्तव्यस्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणित हैं । अवक्तव्यस्थितिविभक्ति वालोसे असंख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यातगुणित है ।।३६३-३७२॥
अब अनन्तानुवन्धी कपायचतुष्कका वृद्धि-हानि-सम्बन्धी अल्पवहुत्व कहते है
चूर्णिसू०-अनन्तानुवन्धी चारो कपायोकी अवक्तव्यस्थितिविभक्ति करनेवाले जीव आगे कहे जानेवाले सर्वपदोकी अपेक्षा सबसे कम है । अवक्तव्यस्थितिविभक्तिवाले जीवोसे असंख्यातगुणहानि करनेवाले जीव संख्यातगुणित है । शेप पदोका अल्पबहुत्व मिथ्यात्वके समान जानना चाहिए ॥३७३-३७५॥
विशेपार्थ-इस सूत्रसे सूचित पदोका अल्पबहुत्व इस प्रकार है-अनन्तानुवन्धीकी असंख्यातगुणहानि करनेवालोसे संख्यातगुणहानि करनेवाले असंख्यातगुणित है। इनसे संख्यातभागहानि करनेवाले सख्यातगुणित है । इनसे संख्यात गुणवृद्धि करनेवाले असंख्यातगुणित है । इससे संख्यातभागवृद्धि करनेवाले संख्यातगुणित है। इनसे असंख्यातभानवृद्धि करनेवाले अनंतगुणित है। इनसे अवस्थितविभक्ति करनेवाले असंख्यातगुणित है । इनसे असंख्यातभागहानि करनेवाले जीव संख्यातगुणित है।
चर्णिसू० -अव मोहकर्मके स्थितिसत्कर्मस्थानोकी प्रत्पणा और अल्पबहत्य कहते है । प्ररूपणा इस प्रकार है-मिथ्यात्वकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिको आदि करके एकेन्द्रिय-प्रायोग्य जघन्य कर्मका स्थितिसत्त्व प्राप्त होने तक निरन्तर मिथ्यात्वके स्थिनिसत्कर्मस्थान होते है ॥३७६-३७८॥