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स्थितिविभक्ति - अल्पबहुत्व-निरूपण
३८२. जहा मिच्छत्तस्स तहा सेसाणं कम्माणं ।
३८३. अभवसिद्धियपाओग्गे जेसिं कम्मंसाणमग्गट्टिदिसंतकम्मं तुल्लं जहणगं *दिसंतकम्मं थोवं तेसिं कम्मंसाणं ठाणाणि बहुआणि ।
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गा० २२ ]
से ही कम नहीं होते है — किन्तु चरम उद्वेलनाकांडकसे भी कम होते है । क्योकि, चरम उद्वेलनाकांडककी चरम फालीप्रमित स्थितियोका युगपत् पतन होनेसे उनके स्थान - सम्बन्धी विकल्प नही पाये जाते है । अतएव एक अन्तर्मुहूर्त और चरम उद्वेलनाकांडक का जितना प्रमाण है उससे कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम कालके जितने समय होते है, उतने सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिध्यात्वके स्थितिसत्कर्मस्थान होते है, ऐसा जानना चाहिए ।
चूर्णिसू० - जिस प्रकार से मिथ्यात्वकर्मके स्थितिसत्कर्मस्थानोकी प्ररूपणा की है उसी प्रकारसे शेप कर्मों के अर्थात् सोलह कपाय और नव नोकपायोके स्थितिसत्कर्मस्थानोकी प्ररूपणा करना चाहिए || ३८२ ॥
अब उपर्युक्त विधानसे उत्पन्न हुए स्थितिसत्कर्मस्थानोके अल्पबहुत्व साधन करने के लिए उत्तरसूत्र कहते है -
चूर्णिसू० - अभव्यसिद्धिक जीवके प्रायोग्य कर्मोंके उत्कृष्ट स्थिति और अनुभागको वॉधनेवाले जिस मिथ्यादृष्टि जीवसे जिन कर्माशो ( कर्म- प्रकृतियो ) का अग्र ( उत्कृष्ट ) स्थिति - सत्कर्म समान है और जघन्य स्थितिसत्कर्म समान नहीं है, किन्तु अल्प है, उन कर्माशोके स्थान बहुत होते है ॥ ३८३॥
विशेषार्थ - अभव्योके धने योग्य कर्मोकी स्थितिसत्त्ववाले जिस मिध्यादृष्टि जीवमें उत्कृष्टस्थिति सत्कर्मके समान होते हुए भी जघन्य स्थितिसत्कर्म समान नहीं होते है, उन कर्मोंके सत्कर्मस्थान बहुत होनेका कारण यह है कि ऊपरकी अपेक्षा नीचे सत्कर्मस्थान अधिक पाये जाते हैं । इसका उदाहरण इस प्रकार है— कोई एक एकेन्द्रिय जीव पल्योपमके असंख्यातवे भागसे हीन चार बटे सात ( 3 ) सागर - प्रमाण कषायोकी उत्कृष्ट स्थितिको बोधता हुआ विद्यमान था, उसने बन्धावलीकालको बिताकर कषायोकी उक्त उत्कृष्ट स्थितिको नवो नोकषायोके ऊपर संक्रमित कर दिया, तब उसके कपाय और नोकपाय दोनोके ही उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मस्थान सदृश ही पाये जाते हैं। अब जघन्य स्थितिसत्कर्मस्थानोकी विसाताका स्पष्टीकरण करते है — किसी एकेन्द्रिय जीवमे कपायोके जघन्य स्थितिसत्कर्म के होनेपर उसने पुरुषवेद, हास्य और रति इन तीन नोकपायोका एक साथ बन्ध प्रारम्भ किया । बन्ध प्रारम्भ करने के प्रथम समयसे लेकर हास्य और रतिके बन्ध-कालका संख्यातवां भाग व्यतीत होनेपर पुरुपवेदका बन्ध-काल समाप्त हो गया और तदनन्तर समयमे ही उसने हास्य और रतिके साथ स्त्रीवेदका बन्ध प्रारम्भ कर दिया । इस प्रकार बन्ध प्रारम्भ कर पुरुपवेदके बन्धकाल
ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'जणेगटिट दिसतकम्म' ऐसा पाठ मुद्रित है। पर जयधवला टीकाने उसकी पुष्टि नहीं होती । अतः 'जहण्णग' ऐसा ही पाठ होना चाहिए । ( देसो पृ० ५११५० १९ )