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गा० २२] स्थितिविभक्ति-अनुयोगद्वार-निरूपण
३. तत्थ अणियोगद्दाराणि' । ४. सव्वविहत्ती जोसव्वविहत्ती उक्कस्सविहत्ती अणुक्कस्सविहत्ती जहण्णविहत्ती अजहष्णविहत्ती सादियविहत्ती अणादियविहत्ती धुवनिहत्ती अद्ध वविहत्ती एयजीवेण सामित्तं कालो अंतरं; णाणाजीवेहि भंगविचओ परिमाणं खेत्तं पोसणं कालो अंतरं सणियासो अप्पाबहुअं च । भुजगारो पदणिक्खेवो वड्डी च ।
चूर्णिसू०-उस मूलप्रकृति-स्थितिविभक्तिके प्ररूपण करनेवाले ये अनुयोगद्वार हैसर्वविभक्ति, नोसर्वविभक्ति, उत्कृष्टविभक्ति, अनुत्कृष्टविभक्ति, जघन्यविभक्ति, अजघन्यविभक्ति, सादिविभक्ति, अनादिविभक्ति, ध्रुवविभक्ति, अध्रुवविभक्ति, एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नानाजीवोकी अपेक्षा भंगविचय, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, सन्निकर्प और अल्पवहुत्व । तथा भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि ॥३-४॥
विशेषार्थ-चूर्णिकारने यद्यपि अल्पवहुत्व तक केवल इक्कीस ही अनुयोगद्वार स्थितिविभक्तिके निरूपण करने के लिए कहे है, तथापि जयधवलाकारने अल्पबहुत्वके अन्तमे पठित च-शब्दको अनुक्त अर्थका समुच्चय करनेवाला मानकर उसके द्वारा सूत्रमें नहीं कहे गये अद्धाच्छेद, भागाभाग और भावानुगम, इन तीन अनुयोगद्वारोका और भी ग्रहण किया है। इसका कारण यह है कि स्थितिविभक्तिका मूल आधार स्थितिवन्ध है । और उसका महावन्धमे उपर्युक्त चौबीस अनुयोगद्वारोसे ही विस्तृत वर्णन किया गया है । इन चौवीस अनुयोगद्वारोसे मूलप्रकृति और उत्तरप्रकृति-सम्बन्धी स्थितिबन्धका यतः महावन्धमे अतिविस्तृत वर्णन किया गया गया है, अतः चूर्णिकारने उनका कुछ भी वर्णन न करके इनके द्वारा स्थितिविभक्तिके जानने या उच्चारणाचार्योको वर्णन करनेकी सूचनामात्र कर दी है। अतएव उच्चारणाचार्य और जयधवलाकारने महावन्धके अनुसार उक्त चौबीसो अनुयोगद्वारोसे स्थितिविभक्तिका निरूपण किया है । भेद केवल इतना है कि महाबन्धमे इन अनुयोगद्वारोसे आठो ही कर्मोके स्थितिवन्धका निरूपण किया गया है । परन्तु प्रस्तुत ग्रन्थमे तो केवल मोहनीय कर्म ही विवक्षित है, अतः उनके द्वारा यहॉपर केवल मोहनीयकर्मके स्थितिबन्धका विचार किया गया है। महावन्धमे इन चौवीसो अनुयोगद्वारोका क्रम इस प्रकार है १ अद्धाच्छेद, २ सर्ववन्ध, ३ नोसर्ववन्ध, ४ उत्कृष्टवन्ध, ५ अनुत्कृष्टवन्ध, ६ जघन्यवन्ध, ७ अजघन्यवन्ध, ८ सादिवन्ध, ९ अनादिवन्ध, १० ध्रुववन्ध, ११ अध्रुवबन्ध, १२ एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व १३ काल और १४ अन्तर, १५ तथा नानाजीवोकी अपेक्षा भंगविचय, १६ भागाभाग १७ परिमाण, १८ क्षेत्र, १९ स्पर्शन, २० काल, २१ अन्तर, २२ सन्निकप, २३ भाव और २४ अल्पबहुत्व । उच्चारणाचार्य और जयधवलाकारने इन्ही चौवीस अनुयोगद्वारोसे स्थितिविभक्तिकी प्ररूपणा
१ किमणिओगद्दार णाम ? अहियारो भण्णमाणत्यत्स अवगमोवाओ । जयध०
२ एत्य अतिल्लो च-सद्दो उत्तसमुचयहो । अप्पाबहुअ अंते ठिदो च-सहो अवृत्तसमुच्चयट्टो । तेण एदेसु अणियोगदारेसु अवुत्तत्स अडादाणिओगहारस्त भागाभाग-भावाणिओगहाराण च गहण कद । जयध०