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- कसाय पाहुड सुत्त
[३ स्थितिविभक्ति
की है। प्रत्येक अनुयोगद्वारका वर्णन ओघ और आदेशसे किया गया है, किन्तु यहींपर ओघकी अपेक्षा मूलप्रकृति-स्थितिविभक्तिका कुछ वर्णन किया जाता है :
'अद्धाच्छेदप्ररूपणा-अद्धा अर्थात् कर्म-स्थितिरूप कालका अवाधा-सहित और अबाधा-रहित कर्म-निषेकरूपसे छेद अर्थात् विभागरूप वर्णन जिसमे किया जाय, उसे अद्धाच्छेद प्ररूपणा कहते है । इसका अभिप्राय यह है कि एक समयमे वंधनेवाले कर्म-पिण्डकी जितनी स्थिति होती है, उसमे एक निश्चित नियमके अनुसार अवाधाकाल पड़ता है ।
अवाधाकालका अर्थ है कि बंधा हुआ कर्म उतने काल तक बाधा नही देगा, अर्थात् उदयमें नही आवेगा । अवाधाकालसे न्यून जो शेष काल रहता है. उसे कर्म-निपेककाल कहते है । उसके भीतर विवक्षित समयमे बंधे हुए कर्मपिंडमे जितने कर्म-परमाणु है, उनका एक निश्चित व्यवस्थाके अनुसार विभाजन हो जाता है और तदनुसार ही वे कर्म-परमाणु अपने-अपने उदयकालके प्राप्त होनेपर फल देते हुए निर्जीर्ण हो जाते है। निषेकशब्दका अर्थ है-एक समयमे निपिक्त या निक्षिप्त किया गया कर्मपिण्ड । जितने समयोके द्वारा वह बंधा हुआ कर्म निर्जीर्ण होता है, वह कर्म-निपेककाल कहलाता है । अवाधाकालका निश्चित नियम यह है कि एक कोड़ाकोड़ी सागर-प्रमाण स्थितिवाले कर्मका अबाधाकाल सौ वर्प-प्रमाण होता है । प्रकृतमे मोहनीयकर्म विवक्षित है । उसकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोड़ी सागर-प्रमाण है, अतएव उसका अवाधाकाल सात हजार वर्प-प्रमाण होता है । इन सात हजार वर्षोंसे न्यून जो सत्तर कोडाकोड़ी सागर-प्रमाणकाल शेष रहता है, उसे निषेककाल कहते है । अन्तर्मुहूर्तसे लेकर अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर तककी स्थितिवाले कर्मोंका अवाधाकाल अन्तर्मुहूर्त-प्रमाण होता है । यह मूलप्रकृतिकी अपेक्षा अद्धाच्छेदकी प्ररूपणा है । उत्तर प्रकृतियोकी अपेक्षा मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर होती है । सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर है । अनन्तानुबन्धी आदि सोलह कपायोकी उत्कृष्ट स्थिति चालीस कोडाकोड़ी सागर है । नव नोकपायोकी उत्कृष्ट स्थिति एक आवली कम चालीस कोडाकोड़ी सागर प्रमाण है । इनमेसे दर्शनमोहकी तीनो प्रकृतियोका अबाधाकाल
१ अद्धाच्छेदपरूवणा-अद्धाच्छेटो दुविधो-जहण्णओ उकस्सओ च । उक्कस्सगे पगद । दुविधो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य | तत्थ ओघेण x x x मोहणीयस्स उक्कस्सओ हिदिबधो सत्तरि सागरोवमकोडाकोडीओ। सत्तवस्ससहस्साणि आवाधा। आवाधुणिया कम्महिदी कम्मणिगो। जहण्णगे पगद । दुविधो णिसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेणxxx मोहणीयस्स जहण्णओ द्विदिवधो अतोमुहुत्त । अतोमुहुत्त आवाधा | आवाधूणिया कम्महिदी कम्मणिसेगो । (महाब० ) अद्धाच्छेदो दुविहो-जहण्णओ उक्कत्सयो च Ixxx उक्कस्से पयद | दुविहो णिसो-ओषेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोहणीयस्स उकस्सटिदिविहत्ती केत्तिया १ सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ पडिबुप्णाओ | कुदो ? अकम्मसरूवेण हिदा कम्मइयवग्गणस्वधा मिच्छत्तादिपच्चएण मिच्छत्तकम्मसरूवेण परिणदसमए चेव जीवेण सह वधमागटा सत्तवाससहस्सावाध मोत्तण सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीसु जहाकमेण णिसित्ता सत्तरिसागरोपमकोडाकोडिमेत्तकालं कम्मभावेच्छिय पुणो तेसिमकम्मभावेण गमणुवलभादो | जहष्ण-अदाछेदाणुगमेण दुविदो णि सोमोवेण आदेसेण य | तत्थ ओवेण मोहणीयत्स जहणिया अद्धा केत्तिया १ एगा हिदी एगगमइया । जय