________________
१२९
___ गा० २२]
स्थितिविभक्ति-अन्तर-निरूपण २६२. अप्पदरकम्मंसिओ केवचिरं कालादो होदि ? २६३. जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । २६४. उकस्सेण वे छावहि-सागरोचमाणि सादिरेयाणि ।
२६५. अंतरं । २६६. मिच्छत्तस्स भुजगार अवविदकम्मंसियस्स अंतरं जहण्णेण एगसमओ। २६७. उकस्सेण तेवहिसागरोवमसदं सादिरेयं । २६८. अप्पदरकम्मंसियस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? २६९. जहण्णेण एगसमओ । २७०. उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । २७१. सेसाणं पि णेदव्वं ।
चूर्णिसू०-सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दो प्रकृतियोकी अल्पतरविभक्तिका कितना काल है ? जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल सातिरेक एक सौ बत्तीस सागरोपम है ।।२६२-२६४॥
विशेपार्थ-उक्त दोनो प्रकृतियोके सत्त्वसे रहित मिथ्यादृष्टि जीवके प्रथमसम्यक्त्वको ग्रहण करनेपर प्रथम समयमे अवक्तव्यविभक्ति होती है और दूसरे समयसे लगाकर सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्तकाल-द्वारा दर्शनमोहनीयका क्षय करने तक अल्पतरविभक्तिका जघन्यकाल पाया जाता है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनो प्रकृतियोकी अल्पतरविभक्तिका उत्कृष्ट काल कुछ अधिक एक सौ वत्तीस सागरोपमकी प्ररूपणा पूर्वके समान जानना चाहिए ।
चूर्णिसू ०-अब भुजाकारविभक्ति आदिके अन्तरको कहते है-मिथ्यात्वकी भुजाकार और अवस्थित विभक्तिवाले जीवका जघन्य अन्तरकाल एक समय है ॥२६५-२६६॥
विशेपार्थ-भुजाकार और अवस्थितविभक्तिको एक समय करके द्वितीय समयमे अल्पतरविभक्ति कर तृतीय समय मे भुजाकार और अवस्थित विभक्तिके करनेपर एक समयप्रमाण अन्तर पाया जाता है ।
चूर्णिसू०-मिथ्यात्वकर्मकी भुजाकार और अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ अधिक एक सौ तिरेसठ सागरोपम है ॥ २६७ ॥
विशेपार्थ-तिर्यंचोमे अथवा मनुष्योमे कोई जीव मिथ्यात्वकी भुजाकार और अवस्थितविभक्तिको आदि करके पुनः वहीपर अन्तर्मुहूर्तकालसे अल्पतरविभक्तिके द्वारा अन्तरको प्राप्त हो तीन पल्योपमवाले देवकुरु या उत्तरकुरुके जीवोमे उत्पन्न हो वहाँसे मरकर देवादिकोमें एक सौ तिरेसठ सागरोपमकाल तक परिभ्रमण करके अन्तम मनुष्योमे उत्पन्न हुआ और अन्तर्मुहूर्त व्यतीत होनेपर संलशको पूरित करके भुजाकार और अवस्थित विभक्तिको किया। इस प्रकार सूत्रोक्त अन्तर उपलब्ध हो जाता है।
चूर्णिसू०-मिथ्यात्वकर्मकी अल्पतरविभक्तिका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार शेप कर्मोका भी अन्तर जानना चाहिए ॥२६८-२७१॥
विशेपार्थ-यतः मिथ्यात्वकर्मकी अल्पतरविभक्तिवाले जीवके भुजाकार अथवा अवस्थित विभक्तिको एक समय करके पुनः तृतीय समयमे अल्पतरविभक्ति संभव है, अतः