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१३६ कसाय पाहुड सुत्त
[३ स्थितिविभक्ति ____३२७. एत्तो वड्डी' । ३२८. मिच्छत्तस्स अस्थि असंखेज्जभागवड्डी हाणी, संखेजभागवड्डी हाणी, संखेज्जगुणवड्डी हाणी, असंखेज्जगुणहाणी अवठ्ठाणं । ३२९. एवं सव्वकम्माणं । ३३०. णवरि अणंताणुवंधीणमवत्तव्यं सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणमसंखेजगुणवड्ढी अवत्तव्यं च अस्थि ।
चूर्णिसू०-अब इससे आगे वृद्धि नामक अनुयोगद्वारको कहते हैं ॥३२७||
विशेपार्थ-पहले पदनिक्षेप नामक जो अनुयोगद्वार कह आये है, उसीके वृद्धि, हानि और अवस्थानके द्वारा विशेष वर्णन करनेको वृद्धि कहते है। इसके समुत्कीर्तना, स्वामित्व आदि तेरह अनुयोगद्वार है। उनमेसे चूर्णिकारने यहॉपर समुत्कीर्तना, काल, अन्तर और अल्पवहुत्वका ही आगे प्रतिपादन किया है और शेष अनुयोगद्वारोको सुगम समझकर उनका वर्णन नहीं किया है।
चूर्णिसू०-मिथ्यात्वकर्मकी असंख्यातभागवृद्धि होती है, असंख्यातभागहानि होती है, संख्यातभागवृद्धि होती है, संख्यातभागहानि होती है; संख्यातगुणवृद्धि होती है, संख्यातगुणहानि होती है, असंख्यातगुणहानि होती है और अवस्थान भी होता है। जिस प्रकार मिथ्यात्वकर्मकी तीन प्रकारकी वृद्धि, चार प्रकारकी हानि और अवस्थान होता है, उसी प्रकार शेप सर्व कर्मोकी वृद्धि हानि और अवस्थान होते है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यस्थिति, तथा सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणवृद्धि और अवक्तव्यस्थिति होती है ॥३२८-३३०॥
विशेषार्थ-अनन्तानुवन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यस्थिति कहनेका कारण यह है कि अनन्तानुवन्धी कपायचतुष्ककी विसंयोजना किए हुए सम्यग्दृष्टि जीवके मिथ्यात्व ग्रहण करनेपर जो अनन्तानुबन्धीका नवीन बन्ध एवं सत्त्व होता है, उसका यहॉ सद्भाव पाया जाता है । इस प्रकारके स्थितिसत्त्वको अवक्तव्य कहनेका कारण यह है कि इसकी गणना भुजाकार, अल्पतर और अवस्थित भंगामे नहीं की जा सकती है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दो प्रकृतियाकी असंख्यातगुणवृद्धि और अवक्तव्य स्थिति भी होती है । क्योकि, सबजघन्यस्थितिके चरमउद्वेलनाकांडकप्रमाण स्थितिसत्त्ववाले मिथ्यादृष्टि जीवके उपशमसम्यक्त्व ग्रहण करनेपर असंख्यातगुणवृद्धि, तथा दोनो प्रकृतियोंकी सत्तासे रहित सादिमिथ्यादृष्टि अथवा अनादिमिथ्याष्टि जीवके प्रथमोपशमसम्यक्त्वके ग्रहण करनेपर उनकी अवक्तव्यस्थिति पाई जाती है।
१ का वड्डी णाम ? पदणिक्खेवविसेसो वढी । त जहा-पदणिक्खेवे उक्कस्सिया वढी उपसिया हाणा उकत्समवाण च परुविद, ताणि वडि-हाणि-अवटाणाणि एगल्वाणि ण होति, अणेगरुवाणि क्ति जाणावेदि तेण पदणिक्खेववितेसो वद्वि त्ति घेत्तव्वं । २ किमवाण ? पुबिल्लट्टिदिसतसमाढिदाण बवणमवाण णाम | ३ अण ताणुव धिचउक विसजोइटसम्मादिट्टिणा मिच्छत्ते गहिदे अवतन हाद पुरगबिजमाणटिदिसतसमुप्पत्तीदो।xxxवदि-हाणि अवठ्ठाणाणमभावेण भुजगार अप्यदर-अबाद सद्देहि ण बुञ्चदि नि अवत्तव्यम्भुवगमादो । जयघ०