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कसाय पाहुड सुत्त
[ ३ स्थितिविभक्ति
२७२. णाणाजीचेहि भंगविचओ । २७३. संतकम्मिएस पयदं । २७४. सव्ये जीवा मिच्छत्त - सोलसकसाय-णवणोकसायाणं भुजगारट्ठिदिविहत्तिया च अप्पदरट्ठि दि विहत्तिया च अवट्टि दिडिदिविहत्तिया च । २७५. अनंताणुबंधीणमवत्तव्यं भजिदव्वं । २७६. सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं भुजगार अवदिअवत्तव्यविदिविहत्तिया भजिदव्या । २७७ अप्परविहत्तिया णियमा अत्थि ।
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२७८. णाणाजीवेहि कालो । २७९. सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं भुजगार अवट्ठिदअवत्तच्चडिदिविहत्तिया केवचिरं कालादो होंति ? २८०. जहण्णेण एगसमओ । २८१. एक समयमात्र जघन्य अन्तर काल कहा है । मिथ्यात्व की अल्पतरविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । क्योकि, अल्पतरविभक्तिको करनेवाले जीवके द्वारा भुजाकार अथवा अवस्थितविभक्तिके अन्तर्मुहूर्त तक करके पुनः अल्पतरविभक्तिके करनेपर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अन्तर पाया जाता है । जिस प्रकार मिथ्यात्वकर्मकी भुजाकार, अवस्थित और अल्पतर विभक्तियोका अन्तर कहा है, उसी प्रकार मोहकर्मकी शेप प्रकृतियोका भी अन्तर जानना चाहिए । क्योकि उससे शेप प्रकृतियांकी अन्तर- प्ररूपणामें कोई विशेष अन्तर नहीं है ।
चूर्णिसू० [० - अब नाना जीवोकी अपेक्षा भुजाकार आदि विभक्तियोके भंगोका निर्णय किया जाता है । जिन जीवांके विवक्षित मोह - प्रकृतियोकी सत्ता पाई जाती हैं, ऐसे सत्कर्मिक जीवोमे यह अधिकार प्रकृत है । क्योंकि असत्कर्मिक जीवोमे भुजाकार आदि विभक्तियाँ का पाया जाना असम्भव है । मोहकर्मकी सत्तावाले सर्व जीव नियमसे मिथ्यात्व, सोलह कपाय और नव नोकपाय, इन प्रकृतियोंकी भुजाकार स्थितिविभक्ति करनेवाले होते हैं, अल्पतर स्थितिविभक्ति करनेवाले होते हैं और अवस्थित स्थितिविभक्ति करनेवाले होते हैं । किन्तु अनन्तानुबन्धी चारो कपायोकी अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव भवितव्य है । अर्थात् कुछ जीव विभक्ति करनेवाले होते है और कुछ नहीं भी होते है । क्योंकि, किसी कालसे अनन्तानुबन्धी कपाय- -चतुष्ककी विसंयोजना करनेवाले सम्यग्दृष्टि जीवोका निरन्तर मिथ्यात्वरूपसे परिणमन नही होता । इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दो प्रकृतियांकी भुजाकार, निरन्तर अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्ति करनेवाले जीव भजितव्य है । क्योंकि, सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवोका अभाव है । किन्तु इन दोनो प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्ति करनेवाले जीव नियमसे होते हैं। क्योंकि, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिक सत्तावाले जीवांका त्रिकालमे भी कभी विरह नहीं होता है ।। २७२-२७७ ॥
चूर्णि १० - अब नाना जीवोकी अपेक्षा भुजाकार आदि विभक्तियोंके कालका निरूकरते हैं—सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनो प्रकृतियां के भुजाकार, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्ति करनेवाले जीवांका कितना काल है ? जयन्य काल एक समय है । क्योकि, इन दोनों प्रकृतियोकी भुजाकार, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिको एक समय करके द्वितीय समयमै सभी जीवोकं अल्पतरविभक्तिरूपसे परिणमन देखा जाता है ।