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गां० २२ ]
स्थितिविभक्ति-अन्तर - निरूपण
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म्मियं तरं जहणेण अंतोमुहुतं । ८४. उकस्स मुवडूपोरगलपरियहं ८५. एतो जहण्णयंतरं । ८६. मिच्छत्त-सम्मत्त वारस कसाय-गवणोकसायाणं जहण्णट्टिदिविहत्तियस्स णत्थि अंतरं । ८७. सम्मामिच्छत्त- अणंताणुबंधीणं जहण्णट्ठिदिविहत्तियस्स अंतरं जहणेण अंतोनुहुत्तं ।
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विशेषार्थ - मिथ्यात्वकर्मके उत्कृष्ट स्थितिसत्त्ववाले किसी जीवने वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होनेके प्रथम समयमे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दोनो प्रकृतियोका उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व स्थापित किया और दूसरे ही समय मे अनुत्कृष्ट स्थितिसत्त्वको प्राप्त होकर सर्व जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल सम्यक्त्वके साथ रह कर मिथ्यात्वसे परिणत हो, पुनः उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर, अन्तर्मुहूर्त तक रह कर, वेदकसम्यक्त्वके योग्य मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिसत्त्वके साथ वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होनेपर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतियो के उत्कृष्ट स्थिति - सत्त्वको प्राप्त हुए जीवके इन दोनो प्रकृतियो की उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण जघन्य अन्तरकाल पाया जाता है ।
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(० - सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दोनो प्रकृतियोकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तरकाल देशोन अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है ॥८४॥
विशेषार्थ - मोहकर्मकी छव्वीस प्रकृतियोका सत्त्व रखनेवाला कोई एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ और उसके साथ अन्तर्मुहूर्त रह कर मिथ्यात्वको प्राप्त हो उत्कृष्ट स्थितिको वांध कर प्रतिनिवृत्त हुआ स्थितिघात न करके और वेदकसम्यक्त्वको ग्रहण करके उक्त दोनो प्रकृतियो के उत्कृष्ट स्थितिसत्त्वको करके तथा सम्यक्त्वके साथ अन्तर्मुहूर्तकाल तक रहकर मिथ्यात्वको प्राप्त हो कुछ कम अर्थपुद्गलपरिवर्तन तक परिभ्रमण करके पुनः तीनो करणीको करके उपशमसम्यक्त्वको प्राप्तकर और मिथ्यात्वमे जाकर पुनः उत्कृष्ट स्थिति वध कर अन्तर्मुहूर्त से वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुए जीवके प्रथम समय मे मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमे संक्रमणकर देनेपर इन दोनो प्रकृतियोकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तरकाल पाया जाता है ।
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चूर्णिसू० ० - अब इससे आगे जघन्य स्थितिविभक्तिका अन्तर कहते हैं - मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति, अप्रत्याख्यानावरण आदि वारह कषाय और हास्य आदि नव नोकपाय, तेईस प्रकृतियो की जघन्य स्थितिविभक्तिका अन्तर नही होता है । क्योकि, क्षयकर दिये गये कर्मोंकी पुनः उत्पत्ति नही होती है । । ८५-८६ ॥
चूर्णिसू० - सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुवन्धी चतुष्टय, इन पाच प्रकृतियो की जघन्य स्थितिविभक्ति का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ८७ ॥
विशेषार्थ - उद्वेलनाके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके जयन्य स्थितिसत्त्वको करता हुआ कोई जीव सम्यक्त्वके अभिमुख होकर अन्तर सम्वन्धी चरमफाली को भी अपनीत करके तत्पश्चात मिथ्यात्वकी प्रथम स्थिति एक समय कम आवलीमात्र प्रवेश करके वहॉपर समय
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