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कसाय पाहुड सुत्त
[ ३ स्थितिविभक्ति
८. एदेण अट्ठपदेण । ९. पमाणाणुगमो । १०. मिच्छत्तस्स उक्कस्सडिदिविहत्ती सत्तरि-सागरोवम- कोडाकोडीओ पडिवुण्णाओ । ११. एवं सम्मत्त सम्मागिच्छत्ताणं । णवरि अंतोमुहुत्तणाओ ।
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कालको एक स्थिति कहते है, क्योकि, वह स्थिति एकसमय- मात्र निष्पन्न है । यह स्थिति भी स्थितिविभक्ति है, क्योकि वह द्विसमयादि स्थितियोंसे भिन्न है । उत्कृष्ट, दो समय कम उत्कृष्ट आदि क्रमसे अनेक प्रकारकी स्थितियाँ होती है, उन्हे अनेकस्थिति कहते है । अथवा, मोहकर्मकी उत्तरप्रकृतियोकी स्थितिको अनेक स्थिति कहते है, और उन स्थितियोकी विभक्तिको उत्तरप्रकृतिस्थितिविभक्ति कहते हैं ।
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चूर्णिसू० - इस अर्थपदके द्वारा उत्तरप्रकृतिस्थितिविभक्तिका प्रमाणानुगम करते है । अर्थात् उन चौवीस अनुयोगद्वारोमे से पहले उत्तर प्रकृतियोके अद्धाछेदको कहते है | मिध्यात्वप्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति पूरे सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम कालप्रमाण है ।। ८-१० ।। विशेषार्थ - मिथ्यात्वकर्मकी यह उत्कृष्टस्थिति एक समयमे बंधनेवाले समयप्रबद्धकी अपेक्षा कही है, क्योकि, जो कार्मण-वर्गणाओका स्कन्ध जीवके मिथ्यादर्शन आदि वन्धकारणोसे मिथ्यात्वकर्मरूप परिणत होकर वन्धको प्राप्त होता है, उसकी उत्कृष्टस्थिति समयाधिक सात हजार वर्षप्रमाण अबाधाकालको आदि लेकर निरन्तर एक-एक समयकी अधिकता के क्रमसे पूरे सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपमकाल तक देखी जाती है ।
अव सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति की उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति कहते है - चूर्णिसू० - इसी प्रकार सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्टस्थितिविभक्ति जानना चाहिए । विशेप बात यह है कि ये दोनो अन्तर्मुहूर्त कम होती है ॥ ११ ॥
विशेषार्थ - ऊपर मोहकर्मके मिथ्यात्वप्रकृति की उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका प्रमाण पूरे सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम बताया गया है, उसमे एक अन्तर्मुहूर्त कम करनेपर सम्यक्त्वप्रकृतिक उत्कृष्टस्थिति हो जाती है । तथा यही प्रमाण सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति की उत्कृष्टस्थितिविभक्तिका है । इसका कारण यह है कि सम्यक्त्व प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनोको वन्धप्रकृतियो मे नही गिनाया गया है, क्योकि, अनादिमिध्यादृष्टि जीवके प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्तिके पूर्व इनका अस्तित्व नहीं पाया जाता है । यहाँ यह शंका की जासकती है, कि जब ये दोनो वन्ध-प्रकृतियाँ नहीं हैं, तब इनका यह उपर्युक्त स्थितिकाल कैसे संभव हो सकता है ? इसका उत्तर यह है कि जब अनादि मिथ्यादृष्टि जीव प्रथम वार सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है, तब वह सम्यक्त्वप्राप्ति के प्रथम समयमे मिध्यात्वद्रव्यके तीन विभाग कर देता है । जैसे कोढोको जॉतेसे दलनेपर तीन विभाग हो जाते हैं कुछ तो तुप-रहित शुद्ध चावल बन जाते हैं, कुछ आधे तुप-रहित हो जानेपर भी अर्ध-तुप-संयुक्त वने रहते है, और कुछ ज्योके त्यो अपने पूर्णरूपमे ही निकलते हैं । इसी प्रकार प्रथमोपगमसम्यक्त्व के उत्पन्न करनेवाले भावरूप यंत्र के ये द्वारा मिथ्यात्वरूप कोदोके ढले जानेपर मिध्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति,