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गा० २२ ]
प्रकृतिस्थानविभक्ति-काल-निरूपण
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६६. तेवीसाए विहतिओ को होदि १ मणुस्सो वा मणुस्सिणी वा मिच्छत्ते खविदे सम्मत्त सम्मामिच्छत्ते सेसे । ६७. चवीसाए विहत्तिओ को होदि १ अणंताणुधिविसंजोइ सम्मादिट्ठी वा सम्मामिच्छादिड्डी वा अण्णय । ६८. छब्बीसाए विहतिओ को होदि ? मिच्छाइट्ठी णियमा । ६९. सत्तावीसाए 'विहत्तिओ को होदि ? मिच्छाइट्ठी । ७० अट्ठावीसाए विहत्तिओ को होदि ९ सम्माइडी सम्मामिच्छाइड्डी मिच्छाइट्ठी वा । ७१. कालो । ७२. एक्किस्से विहत्तिओ केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ।
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चूर्णिसू० - कौन जीव तेईस प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्ति करनेवाला होता है ? मिध्यात्वके क्षपित हो जानेपर और सम्यक्त्वप्रकृति तथा सम्यग्मिथ्यात्वके शेष रहनेपर मनुष्य अथवा मनुष्यनी सम्यग्दृष्टि जीव तेईस प्रकृतियोकी विभक्ति करनेवाला होता है । हॉपर इतना विशेष जानना चाहिए कि मिध्यात्वका क्षय कर सम्यग्मिथ्यात्वको क्षपण करते हुए जीवका मरण नही होता है, ऐसा एकान्त नियम है ॥ ६६ ॥
चूर्णिसू० - कौन जीव चौवीस प्रकृतियोकी विभक्ति करनेवाला होता है ? अनन्तानुबन्धीकषायचतुष्कके विसंयोजन कर देनेपर किसी भी गतिका सम्यग्दृष्टि अथवा सम्यमिथ्यादृष्टि जीव चौबीस प्रकृतियोकी विभक्ति करता है ॥ ६७ ॥
विशेषार्थ - अनन्तानुवन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ, इन चारो प्रकृतियोके कर्मस्कन्धोका अप्रत्याख्यानावरणादि अन्य प्रकृतिस्वरूपसे परिणमन करनेको विसंयोजन कहते हैं । इस विसंयोजनका करनेवाला नियमसे सम्यग्दृष्टि जीव ही होता है, क्योकि, उसके विना अन्य जीवके विसंयोजनाके योग्य परिणामोका होना असम्भव है ।
चूर्णिसू० - कौन जीव छब्बीस प्रकृतियोकी विभक्ति करनेवाला होता है ? नियमसे मिथ्यादृष्टि जीव होता है। कौन जीव सत्ताईस प्रकृतियोकी विभक्ति करनेवाला होता है ? सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलना करनेवाला मिथ्यादृष्टि जीव होता है। कौन जीव अट्ठाईस प्रकृतियोकी विभक्ति करनेवाला होता है ? सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिध्यादृष्टि अथवा मिध्यादृष्ट जीव अट्ठाईस प्रकृतियोकी विभक्ति करता है ॥ ६८-७० ॥
चूर्णि सू० ० - अब उत्तर प्रकृतिसत्त्वस्थानकी विभक्तिका काल कहते है । एक प्रकृतिकी विभक्तिका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥७१-७२ ॥ विशेषार्थ - एक प्रकृतिकी विभक्तिका काल अन्तर्मुहूर्त है, ऐसा कहनेका अभिप्राय यह है कि जब मोहकर्मकी संज्वलन लोभकपायनामक एक प्रकृति सत्ता रह जाती है, तब उसके विभक्त अर्थात् विच्छिन्न या विभाजन करनेमे जो जघन्य या उत्कृष्ट समय लगता
* जयधवला-सम्पादकोने इसे भी चूर्णिसूत्र नहीं माना है । पर यह अवश्य होना चाहिए, अन्यथा आगे ७३ न० के सूत्रमे 'इसी प्रकार दो, तीन और चार प्रकृतिक सत्त्वस्थानोंका काल है' ऐसा कथन कैसे किया जाता ? (देखो जयधवला, भा० २ पृ० २३३ और २३७ )