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कसाय पाहुड सुत
[ २ प्रकृतिविभक्ति
- ६३. एवं दोहं तिहं चउन्हें पंचण्हें एक्कारसहं वारसहं तेरहसहं विहतिओ । ६४. एकावीसाए विहत्तिओ को होदि १ खीणदंसणमोहणिजो । ६५. aratसाए वित्तिओ को होदि ? मणुस्सो वा मणुस्सिणी वा मिच्छत्ते सम्मामिच्छत्ते च खविदे समत्ते सेसे ।
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चूर्णिसू० - इसी प्रकार दो, तीन, चार, पाँच, ग्यारह, वारह और तेरह प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानोकी विभक्तिके स्वामी जानना चाहिए ॥ ६३ ॥
विशेषार्थ - जिस प्रकार से एक विभक्तिके स्वामीका निरूपण किया गया है, उसी प्रकार से दो से लेकर तेरह प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानोकी, विभक्ति करनेवाले भी नियमसे क्षपक मनुष्य अथवा मनुष्यनी होते है; क्योकि, मनुष्यगतिको छोड़कर अन्य गतियोमे कर्म-क्षपणके योग्य परिणामोका होना असम्भव है । इसलिए एक प्रकृति सत्त्वस्थानरूप एक विभक्तिके स्वामित्वके समान दो, तीन आदि सूत्रोक्त विभक्तियोके भी स्वामी जानना चाहिए । विशेषता केवल इतनी है कि पाँच प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्ति केवल मनुष्योमे ही होती है, मनुष्यनियोमे नहीं, क्योकि, उसके सात नोकपायोका एक साथ ही क्षय पाया जाता है । चूर्णिसू० - इक्कीस प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्ति करनेवाला कौन है ? दर्शन मोहनीयकर्मका क्षय करनेवाला क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव है ॥ ६४ ॥
चूर्णिसू० - कौन जीव वाईस प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्ति करनेवाला होता है ? मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वके क्षपित हो जानेपर तथा सम्यक्त्वप्रकृतिके शेप रहनेपर मनुष्य अथवा मनुष्यनी कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव वाईस प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्ति करनेवाला होता है ॥ ६५॥
विशेषार्थ - यहॉपर 'मनुष्य' पदसे पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी तथा 'मनुष्यनी' पदसे स्त्रीवेदी मनुष्योका अर्थ लिया गया है, सो यहॉपर तथा आगे भी जहाँ इन पढ़का प्रयोग हो, वहॉपर भावनपुंसकवेदी और भावस्त्रीवेदी मनुष्योको ही ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि द्रव्यवेदी नपुंसक अथवा स्त्रीके क्षपकश्रेणीका आरोहण, तथा दर्शनमोहनीयका क्षपण आदि कुछ निश्चित कार्योंका प्रतिपेध किया गया है । यहाँ यह आशंका की जा सकती है कि कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि तो मरण कर चारो गतियोंमें उत्पन्न हो सकता है, फिर यहॉपर मनुष्य अथवा मनुष्यनीको ही वाईस प्रकृतिकी विभक्तिका स्वामी कैसे कहा ? इसका समाधान दो प्रकारसे किया गया है । एक तो यह कि कुछ आचार्योंके उपदेशानुसार कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीवका मरण होता ही नहीं है, इसलिए सूत्रमे मनुष्य पद दिया गया है । कुछ आचार्योंका यह मत है कि कृतकृत्यवेदकका मरण होता है और वह चारो गतियो उत्पन्न हो सकता है, उनके मतानुसार सूत्रमे दिये गये 'मनुष्य' पदका यह अर्थ लेना चाहिए कि दर्शनमोहके क्षपणका प्रारंभ मनुष्यके ही होता है। हॉ, निष्ठापन चारों गतियोंमे हो सकता हैं । यतिवृपभाचार्यने आगे इन दोनो उपदेशोका उल्लेख किया है ।