________________
गा० २२]
प्रकृतिस्थानविभक्ति-काल-निरूपण ८२. छब्बीसविहत्ती केवचिरं कालादो ? अणादि-अपञ्जवसिदो। ८३. अणादिसपजवसिदो। ८४. सादि-सपज्जवसिदो । ८५. तत्थ जो सादिओ सपञ्जवसिदो जहण्णेण एगसमओ। पूरे मनुष्यभवको सम्यक्त्वके साथ ही विताकर पुनः इस मनुष्यभवसम्बन्धी आयुसे कम वाईस सागरोपमकी आयुवाले आरण-अच्युतकल्पके देवोमे उत्पन्न हुआ। वहॉपर पूरी आयुप्रमाण सम्यक्त्वके साथ रहकर पुनः पूर्वकोटिवर्षकी आयुवाले मनुष्योमे उत्पन्न हुआ । पुनः अपनी पूरी आयुप्रसाण सम्यक्त्वको परिपालन कर मरा और मनुष्यभवकी आयुसे कम इकतीस सागरोपमकी स्थितिवाले देवोमें उत्पन्न हुआ। जब अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आयुकर्म शेष रहा, तत्र सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में जाकर और वहॉपर अन्तर्मुहूर्त तक रहकर पुनः सस्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पश्चात् मरणकर पूर्वकोटिवर्पकी आयुवाले मनुष्योम, पुनः उस मनुष्यायुसे कम बीस सागरोपमकी आयुवाले देवोस उत्पन्न हुआ। पुनः वहॉसे च्युत होकर पूर्वकोटिके मनुष्योंमे उत्पन्न हुआ और पुनः मनुष्यायुसे कस वाईस सागरोपमकी आयुवाले देवोमे उत्पन्न हुआ। पुनः पूर्वकोटिके मनुष्योमे जन्म लेकर फिर भी आठ वर्ष और एक अन्तर्मुहूर्त अधिक मनुष्यायुसे कम चौवीस सागरोपमकी आयुवाले देवोमे उत्पन्न हुआ । पुनः मरणकर पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्योमे उत्पन्न हुआ। वहॉपर गर्भसे आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्तके बीतनेपर मिथ्यात्वप्रकृतिका क्षयकर तेईस प्रकृतिकी विभक्ति करनेवाला हो गया। इस प्रकार उक्त जीवके साधिक दोवार छयासठ सागरोपम चौबीस विभक्तिका उत्कृष्ट काल होता है । उक्त कालमे सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिके क्षपणसम्बन्धी कालके जोड़ देनेपर साधिकताका प्रमाण आ जाता है।
चूणि सू०-छब्बीस प्रकृतिका विसक्तिको कितना काल है ? अभव्य और अभव्यके समान दूरान्दूर भव्यकी अपेक्षा अनादि-अनन्तकाल है, क्योकि ऐसे जीवोके मोहकी छब्बीस प्रकृतियोका न आदि है और न अन्त है। भव्यकी अपेक्षा छब्बीस प्रकृति की विभक्तिका काल अनादि-सान्त है, क्योकि अनादिकालसे आई हुई छब्बीस प्रकृतियोका सम्यक्त्वके प्राप्त करनेपर छब्बीस प्रकृतियो की विभक्तिका अन्त देखा जाता है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना कर छमीस प्रकृति की विभक्तिको प्राप्त होनेवाले जीवकी अपेक्षा छब्बीस प्रकृतिकी विभक्तिका काल सादि-सान्त है। इन तीनो प्रकारोके कालोमेसे सादि-सान्त जघन्यकाल एक समय है ॥८२-८५॥
विशेषार्थ-वह एक समय इस प्रकार संभव है-सम्यक्त्वप्रकृतिके विना मोहकर्मकी सत्ताईस प्रकृतियोकी सत्तावाला कोई मिथ्याटष्टि जीव पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण कालके द्वारा सम्यन्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करते हुए उद्वेलनाकालमें अन्तर्मुर्तिकाल अवशेप रहनेपर उपशमसम्यक्त्व ग्रहण करनेके अभिमुख हुआ और अन्तरकरणको करके मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिमे सर्व गोपुच्छाओको गलाकर जिसके दो गोपुच्छाएँ शेप रह गई