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कसाय पाहुड सुन्त
[ २ प्रकृतिविभक्ति ___७९. वानीसाए तेवीसाए विहत्तिओ केवचिरं झालादो ? जहणुकस्सेपंतोमुहुत्तं । ८०. चवीस-विहत्ती केयचिरं कालादो ? जहण्णेण अंतोसुहत्तं । ८१. उकस्सेण ये छावहि-सागरोबमाणि सादिरेयाणि । प्रकृतियोकी विभक्तिका उत्कृष्टकाल पाया जाता है ।
___ चूर्णिमू-वाईस और तेईस प्रकृतियोकी विभक्तिका कितना काल है ? दोनो विभक्तियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥७९॥
विशेषार्थ-तेईस प्रकृतिकी विभक्ति करनेवाले जीवके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वले क्षपण कर देनेपर वाईस प्रकृतिकी विभक्तिका प्रारम्भ होता है और जब तक सम्यक्त्वप्रकृतिके क्षीण होनेका अन्तिम समय नहीं आता है, तब तक वह बाईस प्रकृतिकी विभक्तिवाला रहता है। इस प्रकार बाईस प्रकृतिका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है। उत्कृष्टकाल भी इतना ही हो सकता है, क्योकि, एक समयमे वर्तमान जीवोके अनिवृत्तिकरण परिणामोकी अपेक्षा कोई भेद नहीं होता है। तथा अनिवृत्तिकरणका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण ही है। तेईस प्रकृतिकी विभक्तिका काल इस प्रकार है-चौबीस प्रकृतिकी सत्तावाले जीवके द्वारा मिथ्यात्वके क्षय कर देनेपर तेईस प्रकृतिकी विभक्तिका प्रारम्भ होता है । पुनः जब तक सत्तामें स्थित समस्त सम्यग्मिथ्यात्वकर्म सम्यक्त्वप्रकृतिमे संक्रमित नहीं हो जाता, तब तक तेईस प्रकृतिकी विभक्तिवाला रहता है । इसका भी जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त ही है, क्योकि, अनिवृत्तिकरणका काल अन्तर्मुहूर्त ही माना गया है।
चूर्णिसू०-चौबीस प्रकृतिकी विभक्तिका कितना काल है ? जघन्यकाल अन्तमुहूर्त है ।।८०॥
विशेषार्थ-मोहकी अट्ठाईस प्रकृतियोकी सत्तावाला सम्यग्दृष्टि जीव जव अनन्तानुबन्धीचतुष्कका विसंयोजनकर चौबीस प्रकृतियोकी विभक्तिका प्रारम्भ करता है और सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्तकाल रह कर मिथ्यात्वप्रकृतिका क्षपण करता है, तब उस जीवके चौवीस प्रकृतिकी विभक्तिका जघन्यकाल पाया जाता है।
चूर्णिसू०-चौवीस प्रकृतियोकी विभक्तिका उत्कृष्टकाल कुछ अधिक दो छयासठ सागरोपम है ॥८१॥
विशेपार्थ-यह साधिक दोवार छयासठ अर्थात् एकसौ बत्तीस सागरोपमकाल इस प्रकार संभव है-चौदह सागरकी स्थितिवाले, और मोहकी छब्बीस प्रकृतियोकी सत्तावाल लान्तव-कापिष्टकल्पवासी देवके प्रथम सागरमे जब अन्तर्मुहर्तकाल शेप रहा, तब वह उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ, और अतिशीघ्र अनन्तानुबन्धी चतुष्कका विसंयोजनकर, चौवीस प्रकृतिचोकी विभक्तिका प्रारम्भ किया। पुनः सर्वोत्कृष्ट उपशमसम्यक्त्वकालको विताकर द्वितीय सागरके प्रथम समयमे वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होकर वहॉपर कुछ अधिक तेरह सागरोपम तक वेदकसम्यक्त्वको पालनकर मग और पूर्वकोटिवर्षकी आयुवाले मनुष्योंमे उत्पन्न हुआ । इस