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कसाय पाहुए सुत्त. (२ प्रतिधिभत्ति ९१. अंतराणुगमेण एकिस्से विहलीए पत्थि अंतरं । ९२. एवं दोण्हं तिण्डं चउण्हं पंचण्हं एकारसह बारसण्हं तेरसह एकवीसाए बावीसाए तेवीसाए विहत्तियाणं । ९३. चउवीसाए विहत्तियस्स केवडियमंतरं ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । ९४. उक्कस्सेण उबड्डपोग्गलपरिय* । वार छयासठ सागरोपम अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिका उत्कृष्ट काल होता है ।
चूर्णिसू०-अन्तरानुगमकी अपेक्षा एक प्रकृतिकी विभक्तिका अन्तर नहीं है।९१॥
विशेषार्थ-एक प्रकृतिकी विभक्तिके अन्तर न होनेका कारण यह है कि एक प्रकृतिकी विभक्ति क्षपकश्रेणीमें होती है और क्षपित हुए कर्माशोकी पुनः उत्पत्ति नहीं होती है, क्योकि, मिथ्यात्व, असंयमादि जो संसारके कारण है, उनका क्षपकश्रेणीमे अभाव हो जाता है । अतः एक प्रकृतिकी विभक्तिका अन्तर नहीं होता है।
चूर्णिम् ०-एक प्रकृतिकी विभक्तिके समान दो, तीन, चार, पॉच, ग्यारह, बारह, तेरह, इक्कीस, बाईस और तेईस प्रकृतिसम्बन्धी विभक्तियोंका भी अन्तर नहीं होता है, क्योकि, ये सभी विभक्तियाँ क्षपकश्रेणीमें ही उत्पन्न होती है ॥९२॥
चूर्णिसू०-चौवीस प्रकृतियोकी विभक्तिका कितना अन्तरकाल है ? जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है ॥९३॥
विशेषार्थ-किसी अट्ठाईस प्रकृतियोकी सत्तावाले सम्यग्दृष्टिने अनन्तानुवन्धी कषायचतुष्कका विसंयोजनकर चौबीस प्रकृतियोकी विभक्तिका आरम्भ किया और अन्तमुहूर्तके पश्चात् मिथ्यात्वको प्राप्त हो अट्ठाईस प्रकृतियोकी विभक्तिका करनेवाला हो गया। अन्तर्मुहूर्त अन्तरालके पश्चात् पुनः सम्यक्त्वको ग्रहण कर और अनन्तानुबन्धी-चतुष्कका विसंयोजन कर चौवीस प्रकृतियोकी विभक्ति करनेवाला हो गया । इस प्रकारसे चौबीस प्रकतियोकी विभक्तिका अट्ठाईस प्रकृतियोकी विभक्ति के साथ अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अन्तरकाल उपलव्ध हो गया।
चूर्णिसू०-चौवीस प्रकृतियोंकी विभक्तिका उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रसाण है ॥९४॥
विशेषार्थ-किसी अनादिमिथ्यादृष्टि जीवने अर्धपुद्गलपरिवर्तन-कालप्रमाण संसारके शेप रहनेपर प्रथम समयमें ही उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण किया और अट्ठाईस प्रकृतियोकी विभक्तिवाला होकर तथा उस अवस्थामे अन्तर्महर्तकाल रहकर अनन्तानुबन्धी कपायका विसंयोजन किया। इस प्रकार चौवीस विभक्तिका प्रारम्भ कर और मिथ्यात्वमे जाकर अन्तर
- जयधवला-सम्पादकोने इस सूत्रको इस प्रकार माना है-'उकस्मेण उवट्टपोग्गलपरियह देसूणमदपोगालपरिय' । पर 'देसूणमद्धपोग्गलपरियट्ट' यह तो 'उपोग्गलपरियट' पदा अर्थ है, उसे भी सूत्रका अग मानना भूल है। इसके आगे-पीछे जहाँ कहीं भी ऐसा प्रयोग आया है, वहाँ सर्वत्र 'उवनः पोग्गलपरिय' इतना ही सूत्र कहा है।