________________
गा० २२]
प्रकृतिस्थानविभक्ति-काल-निरूपण ५३. मिच्छत्तेण चवीसाए विहत्ती । ५४. अट्ठावीसादो सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तेसु अवणिदेसु छब्बीसाए विहत्ती। ५५. तत्थ सम्मामिच्छत्ते पक्खित्ते सत्तावीसाए विहत्ती । ५६. सव्वा ओ पयडीओ अट्ठावीसाए विहत्ती । ५७. संपहि एसा । ५८. ( संदिट्ठी) २८ २७ २६ २४ २३ २२ २१ १३ १२ ११ ५ ४३२१। ५९. एवं गदियादिसु णेदव्या । ६०. सामित्त ति जं पदं तस्स विहासा पढमाहियारो। ६१. तं जहा-एकिस्से विहत्तिओ को होदि ? ६२. णियमा मणुस्सो वा मणुस्सिणी वा खवओ एकिस्मे विहत्तीए सामिओ।। स्थानकी विभक्ति करता है। सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति-सहित उक्त वाईस प्रकृतियोकी सत्तावाला जीव तेईस प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्ति करता है। मिथ्यात्वप्रकृति-सहित उक्त तेईस प्रकृतियोकी सत्तावाला जीव चौवीस प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्ति करता है। अट्ठाईस प्रकृतियोमेसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दो प्रकृतियोके अपनीत अर्थात् कम कर देनेपर शेप छब्बीस प्रकृतियोकी सत्तावाला जीव छब्बीस प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्ति करता है। उक्त छब्बीस प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानमे सम्यग्मिथ्यात्वके प्रक्षेप करनेपर सत्ताईस प्रकृतियोकी सत्तावाला जीव सत्ताईस प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्ति करता है । मोहकी सभी प्रकृतियोकी सत्तावाला जीव अट्ठाईस प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्ति करता है ।।४२-५६॥
- चूर्णिसू०-ओघकी अपेक्षा कहे गये इन पन्द्रह प्रकृतिस्थानोंकी अब यह अंकसंदृष्टि है-२८,२७,२६,२४,२३,२२,२१,१३,१२,११,५,४,३,२,१ ॥५७-५८॥
चूर्णिसू०-इसी प्रकारसे गति आदि मार्गणाओमे मोहनीयकर्मके उक्त सत्त्वस्थान यथासंभव जानकर लगाना चाहिए ॥५९॥
विशेषार्थ-सुगम समझकर चूर्णिकारने आदेशकी अपेक्षा उपयुक्त सत्त्वस्थानीका वर्णन नहीं किया है । अतः विशेष-जिज्ञासुजनोको जयधवला टीका देखना चाहिए। ग्रन्थविस्तारके भयसे हम भी नहीं लिख रहे हैं ।
चूर्णिसू०-'स्वामित्व' इस पदरूप जो प्रथम अनुयोगनामक अधिकार है, उसकी विभापा करते है । वह इस प्रकार है-लोभसंज्वलनप्रकृतिरूप एक प्रकृतिक स्थानकी विभक्ति करनेवाला कौन जीव है ? नियमसे क्षपक मनुष्य अथवा मनुष्यनी एक प्रकृतिरूप स्थानकी विभक्तिका स्वामी है ॥६०-६२॥
विशेषार्थ-यतः नरक, तिर्यंच और देवगतिमे मोहकर्मकी क्षपणाका अभाव है, अतः चूर्णिकारने सूत्रमे 'नियमसे' यह पद कहा । 'मनुष्य' इस पदसे भावपुरुपवेदी और भावनपुंसकवेदी मनुष्योका ग्रहण किया गया है, क्योकि भावस्त्रीवेदियोंके लिए 'मनुष्यनी' यह स्वतंत्र पद दिया गया है । 'क्षपक' पदसे उपशामक जीवोका प्रतिषेध किया गया है, क्योकि उपशमश्रेणीमें मोहकर्मकी एक भी प्रकृतिकी क्षय नही होता है ।